Monday, April 30, 2012

दूरी

दूरी
अपनों को अंजान बनते मैंने कई बार देखा है. जिनके साथ सुख-दुख की बातें सांझा की थी. साथ खाना-पीना, सोना-उठना-जागना सभी कुछ किया था वही कभी किसी मोड़ में मिल जाए तो रास्ते बदल लेते हैं. मेरे साथ ऐसा अभी-अभी हुआ. मेरी एक मित्र हैं. वे आत्मनिर्भर हैं. काफी व्यस्त भी रहती हैं, पर जब भी उन्हें अपने रुटिन से कोफ्त होती है, तो रात में 11 बजे भी मेरे घर आ जाती हैं. उनकी एक सहेली उनके व्यवसाय में साथ जुड़ी हुई हैं. जब भी वे मेरे घर आती हैं दोनों का साथ ही आगमन होता है. एक दिन भरी दोपहरी में मैं प्रेस के लिए निकली. मेरी सहेली की सहेली (मेरी भी दोस्त हुई) अपनी स्कूटर में और मैं अपनी. वे मेरे घर से तीन किलो मीटर आगे रहती हैं. वे मेरे पीछे से आगे निकल गई. जब मैंने उसे देखा तो मैंने हलो करने अपनी गाड़ी तेज कर ली. उन्होंने स्कूटर के ग्लास से मुझे ऐसा करते देख लिया और तेजी से गली के दूसरे मोड पर आगे बढ़ गई. मैंने सोचा हो सकता है, मुझे देखा ही ना हो और मैं बेवजह उसके प्रति ऐसी भावना रख रही हूं. 

जब रास्ते जुदा हो गये तो मैं अपनी धुन में प्रेस के उसी रास्ते से निकली जहां से मेरा रोज का आना-जाना है. यहां भी उसे कहां जाना है, यह बात मेरी जानकारी में थी. मैं जैसे ही अपने प्रेस वाली गली में पहुंची तो फिर दोनों का आमना-सामना हो गया. अब मेरा दिल उसे रोकने को हुआ. मैंने अपनी गाड़ी प्रेस के गेट के सामने खड़ी कर उसे हाथ हिला कर बाय कर दिया, पर यह क्या अब भी वे ना तो मेरी तरफ देखी और ना ही मुस्कुराने की जहमत उठाई. बुरा तो लगा पर यह सोच कर शांत हो गई कि शायद मेरा ऐसा करना उसे नापसंद आया हो.
ठीक ऐसा ही एक बार और हुआ. तब मेरी सहेली की बहनें और भाभी एक ही दुकान में खरीदारी करने के बाद भी मुझसे बात करने से कतराते रहे. वे पहले से उस दुकान में थे. मैं अचानक सामान खरीदने वहां पहुची. एक छोटी सी दुकान में कौन आया और क्या खरीद रहा है, अंजाने में भी पता चल जाता है. मेरे उस दुकान में कदम रखते ही वे जो कुछ भी खरीद रहे थे, उसे उसी हाल में छोड़ ऐसे लापता हुई कि दुकानदार को भी कहना पड़ गया- कुछ लोग खरीदने नहीं हमारा समय खोटा करने आ जाते हैं.
ऐसा क्यों होता है कि आज जिसे अपने प्रिय दोस्त की श्रेणी में रखते हैं. जिनके लिए उनके आड़े वक्त में मदद के लिए तत्पर रहते है वही समय के साथ अपसे दूरी बनाने लगते हैं?
शशि परगनिहा
30 अप्रैल 2012, सोमवार
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Saturday, April 28, 2012

हेमा, रेखा, जया और सुषमा... सबकी पसंद.


हेमा, रेखा, जया और सुषमा... सबकी पसंद...
मैदान से संसद तक पहुंचने वाले दुनिया के महान बल्लेबाज सचिन तेन्दूलकर जितने अच्छे खिलाड़ी हैं, उससे बेहतर एक इंसान भी हैं. जब उन्हें राज्य सभा में केन्द्र सरकार और यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की पहल पर यह सम्मान देना तय हुआ, तो प्रतिक्रिया स्वरूप नेताओं ने इस निर्णय का स्वागत किया वहीं इस मनोनयन से खेल प्रेमियों में उत्साह का संचार हो गया. सभी वर्ग विशेष में खुशियां मनायी जाने लगी. लेकिन इसी के साथ एक और महान कलाकार भी राज्यसभा में गई, जिसके विषय में किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की, वे हैं फिल्म अभिनेत्री रेखा.

राष्ट्रीय जीवन की प्रमुख हस्ती की कसौटी पर अब तक 118 महान हस्तियां राज्यसभा में पहुंच चुके हैं. राजनीति की चकाचौंध से अनेक खिलाड़ी खुद को अलग नहीं कर पाये ऐसे वे खिलाड़ी हैं, जो चुनाव मैदान में अपना भाग्य आजमा कर संसद में पहुंच चुके हैं वे हैं-क्रिेकेट से संयास लेने के बाद कांग्रेस से अजहरूद्दीन मुरादाबाद से सांसद चुने गये. क्रिकेटर कीर्ति आजाद 1983 में विश्व कप जीतने के बाद बिहार के दरभंगा से सांसद बने. बल्लेबाज नवजोत सिंह सिद्दू अमृतसर से चुनाव लड़े और भाजपा सांसद बने. चेतन चौहान 1991 और 1998 में अमरोहा से चुनाव लड़े और भाजपा सांसद रहे. एथलीट जे. सिकंदर पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एस.) से सांसद हैं. तीरंदाज जसपाल राणा 2009 में भाजपा से चुनाव लड़े,हार का सामना करने के बाद कांग्रेस में शामिल हुए. वहीं दो ऐसे क्रिकेटर हैं, जिन्होंने राजनीति में भाग्य आजमाया, पर हारने के बाद अपने क्षेत्र में सक्रियता दिखायी वे हैं-विनोद कांबली और मनोज प्रभाकर.
मनोनीत सदस्य के रूप में लता मंगेश्कर या ऐसी तमाम चर्चित शख्सियतों को यही सम्मान दिया जा चुका है, तब इसका साजनीतिज्ञों और उनके चाहने वालों ने तहे दिल से स्वागत किया, पर आज जब सचिन को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया, तो अचानक सरगर्मी बढ़ गई. उनके मनोनयन और किस पार्टी में वे शामिल होंगे, को लेकर चर्चा है. यदि यूपीए सरकार और सानिया गांधी का यह सराहनीय निर्णय है, तो इसे दलगत राजनीति से उपर उठकर क्यों नहीं देखा जा रहा है? क्या यूपीए सरकार ने सचिन का सम्मान कर एक और विवाद खड़ा कर दिया है? क्यों सचिन के मनोनयन पर प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं? क्यों कहा जा रहा है कि कांग्रेस की यह एक चाल है? क्या इससे पहले अन्य पार्टी की सरकार ने इस तरह की हस्तियों को राज्यसभा में नहीं लाया है, तब क्यों इस तरह के बखेड़े खड़े नहीं हुए? बात तो यहां तक हो रही है कि मास्टर ब्लास्टर को भारत रत्न देने से बचने के लिए यह सम्मान दिया गया है. अब सचिन की गतिविधियों पर नजर रखी जा रही है और उनके कांग्रेस में न चले जाने को लेकर राजनेता भिन्न-भिन्न सु­ााव और बयान दे रहे हैं.
रेखा के लिए कहीं कोई बात नहीं हो रही है, तो क्यों ना एक बात कह दें-हेमा, रेखा, जया और सुषमा.. सबकी पसंद... यह एक डिटर्जेट कंपनी का विज्ञापन जिंगल है, जो रेखा के राज्यसभा में मनोनयन के बाद पूर्ण होता है.
शशि परगनिहा
28 अप्रैल 2012, शनिवार

Friday, April 27, 2012

पढ़बो आ से आमा अऊ छ से छेरी


पढ़बो आ से आमा अऊ छ से छेरी
जिस क्षेत्र में हम जिन्दगी तमाम करते हैं, उसके प्रति हमारी जिम्मेदारी भी बनती है. इसी तरह अपनी मातृभाषा के लिए सजगता आवश्यक है. भाषा, बोली  ही उस क्षेत्र के वाशिंदे होने की पहचान बताती है. जब कोई व्यक्ति संस्कृत को संस्क्रुत उच्चारण करता है, तो हम तत्काल पहचान जाते हैं कि यह मराठी भाषी है. ऐसा ही हम उस व्यक्ति के रहन-सहन और बातचीत के लहजे से उसकी प्रारंभिक पहचान बनाते हैं.
छत्तीसगढ़ी भाषा अत्यंत मीठी भाषा और बोली है. जब हम छत्तीसगढ़ी में बात करते हैं, तो अपनत्व का आभास होता है. यह अलग बात है कि हमें अपनी ही भाषा में सार्वजनिक स्थलों में बातचीत करने में संकोच होता है, जबकि अन्य प्रदेशों के वासी नि:संकोच अपनी भाषा-बोली का इस्तेमाल करते हैं और खुद पर गर्व महसूस करते हैं.
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ी भाषा को राज्य भाषा का दर्जा दिलाने और इस गुत्तुर बोली के विकास के लिए अनेक प्रयास किये गये पर अभी भी हम खाली हाथ हैं. हां एक प्रयास यह हो रहा है राज्य शैक्षणिक अनुसंधान परिषद (एससीईआरटी) प्रदेश के बच्चे स्थानीय बोलियों के आधार पर ककहरा सीखने सिलेबस तैयार करवा रही है. पढ़ाई को रूचिकर बनाने के लिए ककहरा में हल्बी, गोड़ी, मुरिया, गाड़िया, कुंडुक, सरगुजिया व छत्तीसगढ़ी जैसे 7 बोलियों के शब्दों को शामिल किया जा रहा है. पहली और दूसरी के बच्चों को खास ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल पहुंचने वाले बच्चों को हिन्दी आसानी से सम­ा आये इसे ध्यान में रखते हुए पुस्तकों के प्रकाशन की तैयारी है. इसके लेखन का काम शुरू हो चुका है. जैसे ही यह काम समाप्त होगा कुछ स्कूलों में परीक्षण बतौर इसे लागू कर दिया जाएगा और इसके अच्छे परिणाम आने पर प्रदेश में सन 2014 तक बच्चे स्थानीय बोली में ककहरा लिखने-बोलने लगेंगे.
छत्तीसगढ़ शांतिप्रिय प्रदेश है. यहां के वासी सीधे-सरल और भावुक होते हैं. दूसरे की पीड़ा देखी नहीं कि मदद के लिए तत्पर हो जाते हैं, जिसकी वजह से अनेक बार मुसीबतों का सामना करते हैं, पर अपने कर्तव्य से परे नहीं हटते तभी तो ककहरा में वे आ से आमा (आम) और छ से छेरी (बकरी) पढ़ेंगे ना कि उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के निजी और सरकारी स्कूलों में बच्चों की हिन्दी की किताबों में पढ़ाये जा रहे ब से बंदूक और च से चाकू पढ़ेंगे.
स्थानीय बोली या कहें कोई कविता बच्चों को पढ़ाई जाए तो बच्चे तत्काल रट लेते हैं और उसे गाते रहते हैं. मु­ो अभी भी बचपन में पढ़ी अनेक कोर्स की कविताएं याद है. ऐसे में मैं यह कह सकती हूं कि एससीईआरटी का इस दिशा में कार्य करना सराहनीय है, पर उन्हें यह खास ध्यान रखना होगा कि कोर्स में जो ककहरा तैयार कराया जाए उसमें हिंसात्मक शब्दों से परहेज रखा जाए क्योंकि इससे पहले जब भी बच्चों के पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन हुआ है, उसमें इतिहास और भूगोल जैसे विषयों में अनेक त्रुटि और भ्रामक जानकारियां दी गई थी, जिसे विरोध के बाद बदला गया, लेकिन बच्चों के दिमाग में एक बार कोई बात बैठ जाए, तो उसे हटाने लाखों जतन करने पड़ते हैं.
शशि परगनिहा,
27 अप्रैल 2012, शुक्रवार

Thursday, April 26, 2012

बोफोर्स से बेगुगाहों के ह्दय हुए छलनी


बोफोर्स से बेगुगाहों के ह्दय हुए छलनी
बोफोर्स का उपयोग देश की सुरक्षा में कितना कारगर रहा यह तो रक्षा विभाग बता सकता है, पर 1986 में खरीदे गये 410 बोफोर्स तोप से अनेक ऐसे संवेदनशील लोगों के ह्दय छलनी हुए कि आज 25 साल बाद उसकी कसक बाकि है. कई बेगुनाह लोगों को सजा मिली और बच गये वे जो दोषी थे या हैं.

स्वीडन के पूर्व पुलिस स्टेन लिंडस्ट्रोम वे व्यक्ति हैं, जिन्होंने इस सौदे के एक साल बाद दलाली लिए जाने का खुलासा होने पर जांच की और इस घूस काण्ड के 350 से ज्यादा दस्तावेज पत्रकारों को सौंप दिए. दलाली का खुलासा होने के ठीक दस साल बाद स्विस बैंक ने लगभग 500 दस्तावेज जारी कर दिए, जिसमें सीबीआई ने क्वात्रोचि, हथियारों के सौदागर विन चड्ढा, रक्षा सचिव एस. के. भट्टाचार्य के खिलाफ मामला दायर कर दिया. इस सौदे में राजीव गांधी का नाम भी उछला, जिसे आज लिंडस्ट्रोम ने सिरे से नकारते हुए स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने घूस नहीं ली, पर समस्त जानकारी होने के बावजूद उन्होंने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की.
इटली के व्यापारी आत्रोवियो क्वात्रोचि वो व्यक्ति हैं, जिन पर स्पष्ट रूप से दलाली देने के सबूत हैं, पर उनसे दोस्ती निभाने के फेर में आज की तारीख तक इस मामले का ठीक-ठीक खुलासा नहीं हो पा रहा है. क्वात्रोचि को अर्जेटीना में 6 फरवरी 2007 में गिरफ्तार किया गया किंतु वहां की सरकार ने सीबीआई को इंटलपोल से दो दिन बाद गिरफ्तारी की सूचना दी. मजेदार बात यह रही कि सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को आधी-अधुरी जानकारी दी और यह नहीं बताया कि क्वात्रोचि गिरफ्तार किये जा चुके हैं. 20 दिनों की गिरफ्तारी बाद जब क्वात्रोचि रिहा हुए तो सीबीआई वहां उनकी मदद करने में जुट गई, लेकिन अलडोरोडो कोर्ट ने भारत की याचिका को खारिज कर दिया.
अक्टूबर 2008 के बाद बोफोर्स के गोले दलाली लेन-देन के धमाके नहीं कर पाये क्योंकि इस मामले को लगभग लोगों के दिमाग से ओ­ाल कर दिया गया, लेकिन एक बार फिर जंग लगे बोफोर्स तोप को मांजा जा रहा है. सेवानिवृत स्टेन लिंडस्ट्रोम ने अपनी बात रख कर किसी को राहत दी हो या ना दी हो पर सुपर स्टार अमिताभ बच्चन को जरूर खुशी दी है किंतु उन्हें इस बात का भी मलाल है कि जो किया नहीं उसका भार 25 वर्षों तक क्यों ढोना पड़ा? वे इस दाग को धोने विदेश जाकर मुकदमा लड़े और जीते भी, पर मलाल यह रहा कि मां-बाबूजी इस सदमे के साथ इस दुनिया से विदा हो गये.
ऐसा क्या है कि तीन मामले सीधे-सीधे इटली से जुड़े हैं और सरकार को परेशानी में डाल रहे हैं? बोफोर्स के इस ने खुलासे के साथ भारतीय मछुआरों के हत्यारे इतावली पोतरक्षकों के मामले में फजीहत के बाद नया किस्सा सामने आया है कि वीआईपी हेलिकाप्टर सौदे में अंगुली उठ रही है. विपक्षी दलों को इन तीन मुद्दों ने राजनीति करने के लिए अवसर दे दिया है. वे सवाल दाग रहे हैं कि इस सरकार की परेशानियों में अक्सर कोई न कोई इतावली कनेक्शन क्यों नजर आता है? सरकार का अब यह फर्ज बनता है कि इन तीनों मामले में जो भी सच्चाई हो उसका खुलासा करे.
शशि परगनिहा
26 अप्रैल 2012, गुरुवार
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Tuesday, April 24, 2012

आप वही पढ़ेंगे और देखेंगे जो हम चाहते हैं.

आप वही पढ़ेंगे और देखेंगे जो हम चाहते हैं.
हम करें तो गुनाह, आप करें तो अत्मविश्वासी. कुछ ऐसा ही इन दिनों पश्चिम बंगाल में हो रहा है. एक व्यक्ति ने वहां की मुख्यमंत्री का कार्टून क्या बनाया उस पर आफत आ गई. अब मिदनापुर मेडिकल कालेज के एसोसिएट प्रोफेसर विक्रम साहा ने पुलिस में शिकायत की है कि प्रोलाय मित्रा और चिनमय राय ने मुख्यमंत्री का अपमानजनक कार्टंन प्रसारित किया है. इस कार्टून में मुख्यमंत्री का सिर गायब है और शीर्षक टांक दिया है-हमारी मुख्यमंत्री अपना दिमाग खो चुकी है. शीर्षक के साथ मित्रा और राय ने अपने संदेश में यह लिख कर आशंका जतायी है कि- हम जानते हैं कि हमें गिरफ्तार किया जा सकता है, लेकिन हम अपने विचार प्रकट करने में सफल हुए हैं.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री अपने विचार, अपनी चुगलकी नीति के चलते हर वक्त सुर्खियों में बनी रहती हैं. वे प्रधानमंत्री की गद्दी पर नजरें गड़ाए हुए है, तो अपने प्रदेश की जनता को वह तस्वीर दिखाना चाहती हैं, जो वह तय करती हैं. उन्होंने कुछ समय पहले लोगों से अपील की थी कि वे ना तो अखबार पढ़ें और ना ही टीवी पर प्रसारित समाचारों को देखें. ये समाचार भ्रामक होते हैं. अब अपने प्रदेश की जनता के लिए अपना समाचार चैनल और अखबार शुरू करने जा रही हैं. वे इसमें सरकार के सभी विभागों के कामकाज की खबरों को देंगी. उनके अखबार का नाम दैनिक पश्चिम बंगा और चैनल का नाम पश्चिम बंगा है.
बसुमति नाम से पश्चिम बंगाल सरकार कभी अखबार निकाला करती थी, जो अर्से से बंद है. इसी बंद अखबार का नाम परिवर्तित कर दैनिक पश्चिम बंगा अखबार निकाला जाएगा, जो हर शासकीय अर्ध्दशासकीय कार्यालयों और घरों-घर पढ़ा जाएगा. वहीं रूप कला केन्द्र को टीवी चैनल पश्चिम बंगा के संचालन का भार सौंप दिया गया है.
जब राज्य और केन्द्र सरकार ने प्रत्येक विभाग की वेबसाइड बना कर उसमें विभाग की जानकारी देती है फिर इस अखबार और टीवी चैनल की क्या आवश्यकता? आवश्यकता है क्योंकि अधिकांश विभाग की वेबसाइड प्रत्येक दिन की कार्ययोजना, सफलता आदि की जानकारी डालता ही नहीं. कई विभागों के वेबसाइड तो वर्षो से अपडेट नहीं हुए हैं. जहां भाजपा की सरकार है वहां कांग्रेस की सरकार के मंत्रियों की जानकारी है. फिर कितने घरों में नेट की सुविधा है, जो वे अपने प्रदेश की जानकारी लेने उस साइड में जाते हैं? ये जरूर है घर में खाने के लाले हो, पर टीवी जरूर मिल जाएगा.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री दूरद्ष्टि रखती हैं. उन्हें पता है हर घर में टीवी पर उस घर का कोई एक व्यक्ति समाचार देखने एक बार उस चैनल तक जाता है फिर पश्चिम बंगाल में भाषा का मोह कुछ ज्यादा ही देखने को मिलता है. जब अपने बांग्ला भाषा में समाचार देखने, सुनने और पढ़ने मिलेगा, तो लोग इस ओर आकर्षित होंगे ही.
हम वही लोगों को पढ़ायेंगे, दिखायेंगे, जो पश्चिम बंगाल की गाथा (मुख्यमंत्री बार-बार लगातार दिखती रहेंगी) कहता हो. कोई निगेटिव बातें नहीं. सबकी आखों में पट्टी बांध कर घोड़े की तरह एक सीध में चलते रहने की सीख दी जाएगी. जय हो पश्चिम बंगाल की, जय हो मुख्यमंत्री की और जय हो उस प्रदेशवासियों की जिनकी जुबा कट चुकी है,  जिनके अंदर को जोश सुप्त हो चुका है.
शशि परगनिहा
24 अप्रैल 2012, मंगलवार
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Monday, April 23, 2012

चमकदार रिफिल में पैक पान मसालों की बिक्री रूकेगी?

चमकदार रिफिल में पैक पान मसालों की बिक्री रूकेगी?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में हर 5 में से दो लोगों की मौत खैनी, गुटखा और पान मसाला के सेवन से होती है. वह यह आशंका भी जाहिर करता है कि इसी रफ्तार से इनका सेवन और लोगों की आदतों में इजाफा होता रहा तो दुनिया भर में अगले 20 साल में तंबाकू युक्त इन प्रोडक्ट से 80 लाख लोग मौत के काल में समा जायेंगे. यहां यह भी बताना जरूरी है कि पुरूषों की तरह महिलाएं भी बीडी, सिगरेट, गुटखा, खैनी और पान मसाला खाने की आदी हो रही हैं और इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है.
क्या तंबाकू का सेवन आज की देन है? मैंने तो जब से होश संभाला है, लगभग हर पुरुष के मुंह में तंबाकू मल कर दबाते देखा है. पहले पान मसाला का चलन नहीं होने से सिगरेट, बीडी और खैनी खाने वालों को देखा. ग्रामीण इलाके में महिलाओं को बीडी पीने और खैनी का सेवन करते पाया. कुछ लोगों को तंबाकूयुक्त मंजन करने की लत भी देखी है. ट्रेन में आप सफर करें तो रिजर्वेशन डिब्बे में बाथरूम के पास बैठे लोग, जिनमें महिलाएं भी होती हैं, इसे मुंह में दबाये उकडू बैठ पच-पच थूंकते हुए रात आसानी से काट लेते हैं.
मध्य प्रदेश में गुटखा और पान मसाला पर पाबंदी लगायी गई है. इससे पहले भी मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में इस तरह के प्रयोग हो चुके हैं, लेकिन मैंने यह भी पाया कि इसके पीछे जो रूपये बनाने का खेल होता है, वह ज्यादा खतरनाक है. पाबंदी लगाये जाने के बाद हर चौक-चौराहे में बने पान ठेलों में ये सजे हुए नहीं दिखेंगे पर दो गुना पैसा आप पान ठेले वाले को दें, तो वह अखबार में लपेट कर आपको आपकी पसंद का ब्राण्ड उपलब्ध करा देता है. मतलब इस नशे का सेवन करने वालों की तलब को यह को यह रोकता नहीं और बढ़ा देता है. कहते हैं जो दुर्लभ हो उसे पाने की इच्छा बलवती हो जाती है. इसका लाभ इस व्यवसाय से जुड़े व्यावसायियों को डबल मिल जाता है. है ना सौ प्रतिशत लाभ का धंधा.
एक बार मेरा गुजरात जाना हुआ. रात में हम गुजरात की सीमा को छोड़ जैसे ही महाराष्ट्र राज्य में प्रवेश किये तो वहां लगभग 12 बजे महाराष्ट्र सीमा में लाइन से शराब, कबाब की गुमटियां, होटल, पान ठेले दिखे. लगा नहीं रात काफी हो गई है. अच्छी खासी चहल-पहल थी. मैंने अपने ड्राइवर से कहा रुक कर चाय पी लो, नहीं तो नींद आ जाएगी. उसने तत्काल कहा-मैडम यहां रूकना ठीक नहीं है. कुछ दूर आगे जाने पर मैं चाय पी लूंगा. आप निश्चिंत रहे. वैसे मुझे नींद नहीं आ रही है. उसने कार की स्पीड बढ़ा दी. एक गांव को पार करने के बाद ड्राइवर ने खुलासा किया कि- मैडम वहां शराबियों का जमघट था. अधिकांश लोग नशे में रहते हैं और अपनी जरूरत के मुताबिक शराब स्टोर कर ले जाते हैं.
क्या यहां शराब सस्ती मिलती है?
नहीं मैडमजी, गुजरात गांधीजी का राज्य है. यहां शराब पर पाबंदी है. पर पीने वालों को कभी कोई रोक पाया है. वे अपने-अपने साधनों से महाराष्ट्र बार्डर पर आते हैं और शराब खरीद लुक-छिप कर ले जाते हैं.
वहां मैंने पुलिस को वर्दी पहने देखा है. वे ऐसा होने क्यों देंगे?
मैडम शराब ठेकेदार हर हफ्ते उनका हिस्सा पहुंचा देते हैं फिर वे क्यों धर-पकड़ करेंगे?
जब सब कुछ सामान्य चल रहा है, तो पुलिस का यहां क्या काम?
है ना, यहां भी पुलिस दो पैसा बनाने के चक्कर में रहती है. कुछ लोग शराब दुकान नहीं आना चाहते, जिन्हें घर पहुंच सेवा देने छोटे व्यवसायी गाड़ी में भर कर शराब ले जाते हैं और मुंह मांगी कीमत में बेचते हैं. इनसे भी पुलिस पैसे वसूल करती है. खोमचे वालों से मुफ्त में वे जो बेच रहे होते हैं उसे खाते हैं और ये बताते हैं कि गश्त में हैं कहीं कोई अपराध नहीं हो रहा है सभी जगह अमन शांति है.
खोमचे और होटलें इतनी रात तक क्यों खुली है. 12 बजे के बाद कौन कुछ खाना चाहेगा?
आप भोले हो मैडम, 12 बजे के बाद ही इस जगह रौनक बढ़ती है, जो 2 घंटे तक पूरे शबाब में रहती है. इस दो घंटे में जितनी भी दुकानें हैं, उनका माल खप जाता है. शराब पीने के बाद किसे होश रहता है. 5 रूपये का फल्ली दाना 10 रूपये में खरीदा जा रहा है. एक रूपये का पानी पाऊच चिल्हर नहीं है बोल 5 रूपये में थमाया जाता है.
लगता है तुम यहां आ चुके हो, क्यों?
थोड़ा झिझकते हुए ड्राइवर ने कहा- एक बार आया था मैडम. एक शराब व्यापारी का ड्राइवर छुट्टी में था, तो उसने मुझे बुलाया था, तब मैंने जो देखा वही बता रहा हूं.
मैंने इस विषय पर वहीं विराम लगा दिया और मेरा ड्राइवर से संवाद समाप्त हो गया.
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने खाद्य सुरक्षा मानक निर्धारण अधिनियम के तहत तंबाकू जनिक उत्पादों पर रोक लगाई है. भारतीय खाद्य एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) की ओर से पिछले साल जारी अधिसूचना और सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार खाद्य पदार्थों में तंबाकू का इस्तेमाल गलत है. ऐसी स्थिति में मध्य प्रदेश के स्थानीय कोर्ट ने इस व्यवसाय से जुड़े व्यापारियों द्वारा कोर्ट में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए कह दिया है कि इन उत्पादों से पाबंदी नहीं हटायी जाएगी.
इससे उत्साहित हो केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सभी राज्यों को चिट्ठी लिख तंबाकू वाले गुटखा और पान मसाले की बिक्री पर रोक लगाने कहा है. इससे प्रश्न उठता है कि जब इसका उत्पादन शुरू हुआ, तब स्वास्थ्य   मंत्रालय क्या कर रहा था? क्यों इन्हें गुटखा और पान मसाला का उत्पादन करने लाइसेंस दिया गया? क्यों स्वास्थ्य मंत्रालय उस वक्त सचेत नहीं हुआ, जब उसे पता था कि लाइसेंस मिलते ही इस व्यवसाय से जुड़े व्यापारी इसका व्यापक प्रचार करेंगे और जिन्हें इन सबसे परहेज था, वो भी इसके सेवन से खुद को रोक नहीं पायेंगे?
मैंने तो उन छोटे-छोटे स्कूली बच्चों को पान मसाला खाते और उसके पुड़िया को हवा में उछालते देखा है, जिन्हें उनके मां-बाप मद्यान्तर में नाश्ता करने के नाम पर प्रतिदिन उनकी हथेली में रूपया पकड़ाते हैं और वह बच्चा ना तो घर से टिफिन लेकर निकलता है, ना कोई ढ़ग के खाद्य पदार्थ खाता है बल्कि पान मसाला खरीद शान के साथ पुड़िया खोल सीधे मुंह के हवाले कर पुड़िया इधर-उधर फेंक अपनी भूख शांत कर लेता है.
क्या छोटे और क्या बड़े, क्या नेता क्या अधिकारी, हर वर्ग हर कौम का व्यक्ति (महिला-पुरूष और बच्चे) आज पान मसाला खाने का आदी हो चुका है. पान खाने की प्रवृत्ति थम सी गई है. हर आफिस, सड़क, गली, चौक-चौराहों में इनके पीक मार्डन आर्ट की तरह सजे देखे जा सकते हैं. अधिकारी और नेता आफिस में डस्टबीन को पीकदान के रूप में उपयोग कर रहे हैं. जब हर तीसरा-चौथा व्यक्ति इसका सेवन किए बगैर रह नहीं पाता तो क्या केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के इस फरमान (चिट्ठी) को राज्य सरकार गंभीरता से लेगी? या यह चिट्ठी किसी फाइल में धूल खाती पड़ी रहेगी?
शशि परगनिहा
23 अप्रैल 2012, सोमवार