Monday, March 25, 2013

अभियान लाभकारी या .....

अभियान लाभकारी या ..........
साहित्यकार, समाजसेवी व छत्तीसगढ़ अस्मिता अभियान के प्रांतीय संयोजक नंद किशोर शुक्ल अपनी सायकिल को दुल्हन की तरह सजाने के बाद हमारे प्रेस आये और चाहते थे कि उस दुल्हन को हम निहार लें, ताकि उनका अभियान (छत्तीसगढ़ी में शिक्षा की व्यवस्था) शुरू हो. दूसरे दिन से वे बुजुर्ग दुल्हन की सवारी कर आसपास के गांव में जाते रहे और महिलाएं उनकी आरती उतार कर सम्मान करती रही. वे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ी भाषा जनभाषा है. करोड़ों छत्तीसगढ़ियों की मातृभाषा है इसलिए छत्तीसगढ़ी में शिक्षा देने की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए. ध्येय अच्छा है या बुरा इसके परिणाम में मैं नहीं जाना चाहती किंतु एक उदाहरण जरूर देना चाहूंगी.
मेरे पड़ोसी के बुजुर्ग माता-पिता इन दिनों गुजरात से यहां आये हुए हैं. मेरा और उनका आमना-सामना हुआ, तो मैंने जैसे ही नजरें मिली नमस्कार करना चाहा लेकिन बा (बुजुर्ग मां के लिए संबोधन) ने मुझसे पहले अपने हाथ जोड़ कर नमस्ते कह दिया. अब बातें करनी ही थी. पूछा कब आये? वे मौन रहीं. तभी मेरी पड़ोसन अपने किचन से बाहर निकली और बताया बा को हिन्दी समझ आ जाती है लेकिन बोल नहीं पाती.
गुजरात का इतना विकास हुआ है (जैसा हमें इन दिनों दिखाया-पढ़ाया जाता है) से मैं सोचने मजबूर हो गई कि क्या यही विकास है? क्या इसीलिए नरेन्द्र मोदी जब जनसभा को संबोधित करते हैं, तब अपने राज्य की जनता की मानसिकता को ध्यान में रख गुजराती में भाषण देते हैं और जब जिस पद के लिए इन दिनों उनकी लालसा बनी हुई है, तब हिन्दी में संबोधन करते हैं? मतलब राज्य की जनता को खुश रखना है तो शिक्षा पाठ्यक्रम में उस प्रदेश की भाषा  को रखें. ठीक यही कार्य शुक्लजी करने निकल पड़े हैं. क्या वर्तमान परिवेश में हम अपने बच्चों को छत्तीसगढ़ी में पढ़ने की अनिवार्यता का समर्थन करें? क्या भविष्य में हम अपने बच्चों को बा की तरह सीमित दायरे में कैद कर दें ताकि वे अन्य प्रदेश में उच्च शिक्षा या नौकरी के लिए जायें तो अपने साथियों से बात कर ही ना पायें? और पिछड़ जायें. कई बार हमारे बड़े-बुजुर्ग अनजाने में ही अपने बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करने निकल पड़ते हैं और आश्चर्य इस बात का कि उन्हें समझाता कोई नहीं वरन सम्मानीत किया जाता है.
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Friday, March 22, 2013

हिंदी भाषी का अंग्रेजी में हस्ताक्षर

 हिंदी भाषी का अंग्रेजी में हस्ताक्षर
हमारे देश में ऐसे कितने लोग हैं, जो हिन्दी में पढ़ते-लिखते और हिन्दी में बातें करते हैं. हिन्दी दिवस में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं एवं हिन्दी को न केवल बोल-चाल में वरन शासकीय-अशासकीय काम-काज में शामिल करने के हिमायती हैं. वे विभिन्न संगोष्ठी-गोष्ठी, सभा-आमसभा में हिन्दी में लेक्चर देते हैं, पर जब किसी आवेदन-प्रतिवेदन में हस्ताक्षर करते हैं, तो वह अंग्रेजी में होता है. ऐसा क्यों?
मैंने ऐसे अनेक लोगों को देखा है, जो अंग्रेजी पढ़ तो सकते हैं, पर उसके मायने नहीं जानते या अंग्रेजी बोल रहे व्यक्ति के कथन को समझ सकते हैं लेकिन पढ़ नहीं सकते वे सभी अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं. मैं उन लोगों से भी परिचित हूं जिन्हें अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान तो है लेकिन चंद लाइनें पढ़ते समय किसी बच्चे की तरह हिजगे कर पढ़ते और उसे समझने की असफल कोशिश करते हैं लेकिन हस्ताक्षर तो अंग्रेजी  में ही करना है.
मुझे साक्षरता अभियान योजना याद है. यह अभियान सरकारी स्तर पर व्यापक पैमाने पर चलाया गया. उन महिलाओं, वृध्दों के लिए यह योजना बनी, जिन्हें साक्षरता के लाभ को दर्शाते हुए डाक्यूमेंट्री फिल्में दिखायी जाती थी और उनके लिए विशेष क्लास लगायी जाती थी ताकि वे हिन्दी में पढ़ना-लिखना
सीख सकें. योजना का ध्येय अच्छा था किंतु जिन्हें यह कार्य सौंपा गया उनमें लगन का अभाव रहा. वे अपना टारगेट पूरा करने इन कक्षाओं में आने वाले लोगों को क-ख-ग सिखाते-सिखाते थक गये तो तय किया क्यों न इन्हें अपना नाम लिखना सिखाया जाये. प्रत्येक उपस्थित निरक्षकों को अपना-अपना नाम लिखना सिखाया गया और जैसे ही वे अपने नाम का एक-एक अक्षर जोड़-तोड़ कर लिखने लगे, तो अधिकारियों ने जाहिर कर दिया कि हमने फलां-फलां जगह इतने लोगों को साक्षर बना दिया.
शासकीय दस्तावेजों में निरक्षरों की संख्या घट गई, पर निरक्षर साक्षर नहीं बन पाये? वे आज भी उन दस्तावेजों में अपने हस्ताक्षर हिन्दी में कर रहे हैं, जिनके ऊपर हिन्दी में क्या लिखा है, उन्हें नहीं पता और कई बार अपनी निरक्षरता के चलते ठगे गये हैं.
मैं हिन्दी की हिमायती नहीं हूं और न ही अंग्रेजी हटाओ के पक्ष में. हमें समय के साथ चलना है, तो कम-से-कम इन दोनों भाषाओं पर कमांड जरूरी है लेकिन लोगों की मानसिकता की झलक इन हिन्दी भाषियों के अंग्रेजी में किये हस्ताक्षरों में देखी जा सकती है. वे अपनी अंग्रेजी को पुख्ता करने समय नहीं निकाल पाते किंतु अपने हस्ताक्षर को कैसे कलात्मक रुप दिया जाए इस पर घंटों प्रेक्टिस करते हैं. अनेक कागजों को रंगते हैं.
कही आपमें यह आदत तो नहीं है? मेरी बातों में सच्चाई ना हो तो अवश्य कहें, क्योंकि मैंने चंद लोगों को देख कर यह निर्णय नहीं लिया है. यदि आप हिन्दी के ज्ञान तक सीमित हैं, तो हिन्दी में हस्ताक्षर करने में कैसा संकोच?
शशि परगनिहा
22 मार्च 2013, शुक्रवार

Wednesday, March 20, 2013

मां कुछ तो बोल...

मां कुछ तो बोल...
मां आज तुम बहुत याद आ रही हो. सुबह अपने कपड़े की सिलाई खुल जाने पर उसे सिलने सूई-धागा तलाश रही थी, तो तुम मेरी नजरों के सामने आ गई. ऐसा लगा जैसे तुम मेरे उस कपड़े को दुरूस्त करने हाथ आगे बढ़ा रही हो लेकिन अचानक आंखों से ओझल हो गई. न जाने कहा रखे सूई-धागे को ढूंढने में समय बर्बाद करती रही. मां तुम जब हमारे कपड़ों को धोने डालती थी, तो एक नजर पूरे कपड़े को टटोल लेती थी और बटन, हुक, सिलाई खुल गये हों तो ठीक-ठाक कर कबड में रख देती थी, जैसे वह अभी टेलर के पास से सिलाई होकर आया है.
मां मेरे पास तुम्हारे हाथों से कढ़ाई किये रुमाल आज भी सुरक्षित हैं. मैं उसी झोले में तह कर रख दी हूं, जो तुमने सिले हैं. मैं उसे अपने से अलग नहीं कर सकती और खराब भी नहीं कर सकती. मां वो तुम्हारी दी हुई अमानत है, जो मुझे सबसे प्रिय है. मैं उसे जब-तब खोल कर देख लेती हूं. उसमें मां तेरी छबि दिखती है. मां मुझे वह दिखता है, जब तुम पुरी दोपहरी बिना आराम किये इसे बनाने में लगा देती थी. तुम इतनी मेहनत इसलिए करती थी ताकि गर्मी, बरसात, ठंड में हम इस रुमाल से अपने चेहरे और हाथों को पोंछ कर साफ करते रहें.
मां क्या बाबूजी ने खुश होकर तुम्हें सिलाई मशीन भेंट की थी? मैंने जबसे होश संभाला रसोई का काम निपटा कर तुम इसी में जुटी रहती थी. हमने तुम्हारे सीले शमीज, फ्रांक और न जाने क्या-क्या डिजाइन के कपड़े पहन अपनी सहेलियों के बीच इतराया है. मां मुझे अब भी याद है, जब मैंने तुम्हारे द्वारा तैयार फ्रांक को पहनने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि उसमें तुमने मेरी पसंद का लेस नहीं लगाया था. कई दिनों की नाराजगी के बाद एक दिन वह जैसा मैं चाहती थी ठीक वैसा मेरी कपड़ों की अलमारी में सबसे ऊपर रखा था. मैं खुश हो पूरे दिन उसे पहन मटकती रही. रात में सोने से पहले उस फ्रांक को उतारना नहीं चाहती थी इसलिए चुपचाप अपने बिस्तर में जा सो गयी.
मां जब तक तुम हमारे साथ रही मैंने तुम्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया. तुम बड़ी खामोशी से हमारी जरूरतें पूरी करती रहीं और मां तुम उसी खामोशी से पूरे 2 दिनों तक हमारे साथ रही (वे दो दिनों तक कोमा में अस्पताल के बिस्तर में रही) और मुझसे कुछ कहे स्वर्गलोक चली गई. मां तुमने क्यों आखरी बार मुझसे बात नहीं की? मां कुछ तो जवाब दे मां...
शशि परगनिहा
20 मार्च 2013, बुधवार
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Tuesday, March 19, 2013

सात वचन-सात फेरे

सात वचन-सात फेरे
एक महिला अचानक अपने हंसते-खेलते परिवार में एकांकी हो जाती है, तब उसे लगता है आयी विपदा से खुद को लड़ना होगा, पर उसे ढाढस कौन देगा? मेरे पड़ोस की घटना ले लें. रपववार की सुबह उसने मुझसे कहा-वक्ष में गठान होने का अहसास हो रहा है, क्या करूं? मैंने अपने परिचित स्त्री रोग विशेषज्ञ से मिलने की सलाह दी. डाक्टर को फोन कर दिया. पड़ोसन तीन दिन बाद डाक्टर से मिलने गई (क्योंकि पति महोदय के पास वक्त नहीं था) परीक्षण से पता चला कैंसर है, जो चौथे स्टेज में पहुंच गया है. डाक्टर ने मुझे सारी बातें पड़ोसन के बताने से पूर्व दी जानकारी दे दी.
चार दिन बाद पड़ोसन डबडबाई आंखों से मुंबई के डाक्टर से या टाटा या नाना में दिखाने की बात कही. मैंने कहा तुरंत निकलें, यहां क्या कर रहे हैं. उनकी जेठानी भी साथ थी. वह अपनी जेठानी को साथ ले जाना चाह रही थी, पर जेठानी बार-बार इशारे कर रही थी, मुझे मुंबई नहीं जाना है. तत्काल मेल में डाक्टर को जानकारी भेजी, डाक्टर ने जवाब भेजा, आ जाइये. अब ट्रेन से जाये या प्लेन से इसे लेकर पति-पत्नी में बहस होने लगी. खैर रोती-गाती पड़ोसन प्लेन से मुंबई नानावटी में एडमिट हो गई.
बातचीत के दौरान मैंने जब पड़ोसन से पूछा कि क्या आपको अपने शरीर में आये परिवर्तन का आभास नहीं हुआ? उसने कहा स्थितियां ऐसी बनती रही कि डाक्टर को दिखा दूं, सोचती रही लेकिन वक्त नहीं निकाल पायी. कभी बच्चों की परीक्षा, कभी जेठानी के बच्चे का आपरेशन. इन्हीं सब में अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह हो गई लेकिन अब असहनीय दर्द होने लगा है. डाक्टर ने जब कैंसर बताया तो रातों की नींद और खाना-पीना सब छूट गया है. अब शरीर में पूरे समय दर्द रहता है.
जांच एवं कीमोथेरेपी करा पड़ोसन लौट आयी है. उनके साथ उनकी मम्मी-पापा भी यहां आये हैं. घर में दो बच्चे और पति हैं. 6 लोगों की उपस्थिति में वह खाना बनाने में असमर्थ है. 5000 रूपये में खाना बनाने वाली नौकरानी को रखा गया है. जेठानी जो जब-तब आ जाती थी उनका आना कम हो गया है. पति गुमसुम से हैं और नौकरी बजा रहे हैं. लाचार (शुगर की मरीज) मां दिन में तीन बार इंशुलिन के इंजेक्शन लगा बेटी का ध्यान रख रही है. पिता चाहते हैं यहीं रहें लेकिन उन्हें लौटना होगा अपने बेटे के पास.
क्या पति ने अपनी पत्नी की परेशानी उसके शरीर में आये परिवर्तन को रात में जब हमबिस्तर हुए, तब महसूस नहीं किया? क्या पत्नी की बीमारी उनके लिए कोई मायने नहीं रखता? क्या वे इस बीमारी के विषय में कभी आपस में बातचीत नहीं किये? क्यों पति ने डाक्टर को जब 2 से ढाई साल पहले इस बीमारी के चलते एक वक्ष पत्थर में तब्दील हो रहा था, दिखाने के लिए वक्त नहीं निकाला? क्या पत्नी सिर्फ भोग्या होती है? जो पति और बच्चों के खान-पान, घर की साफ-सफाई और उनकी जरूरतों को पूरा करने में अपने 24 घंटों को लगा दे? वह बीमार पड़ती है, तो पति मेडिकल स्टोर से दो गोलियां खरीद अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाता है? आखिर क्यों वह पति भूल जाता है, जब अग्नि के सात फेरे लेते समय सात वचन देता है? क्या जन्म-जन्म का साथ विवाह के दौरान पढ़े मंत्रों और अग्नि कुण्ड के धुएं में उसी वक्त जलकर राख हो जाते है और उसे यह सार्टिफिकेट मिल जाता है कि तुम सिर्फ भोग्य की वस्तु हो, तुम्हारी भावनाओं, तुम्हारी बीमारी, तुम्हारे अधिकार कोई मायने नहीं रखते, तुम्हें तो मेरे बनाने नियमों के अनुसार चलना होगा. वह यही चाहता है तुम मेरी शारीरिक भूख मिटाओ तो बदले में मैं तुम्हें हर वो आधुनिक साजो-सामान दिलाउंगा, जिसमें तुम उलझी रहो.
शशि परगनिहा
19 मार्च 2013, मंगलवार
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Monday, March 18, 2013

उच्च शिक्षा

देश की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अंग्रेजी को बनाये रखना आवश्यक है. अगर अंग्रेजी आपको नहीं आती तो छोटी-मोटी नौकरी से संतुष्ट होना पड़ेगा और महिने भर का खर्च उस तनख्वाह की रकम से जोड़-तोड़ कर चलाना होगा. अंग्रेजी उच्च शिक्षा का माध्यम है और उच्च शिक्षा का केन्द्र महानगर है.
अंग्रेजी ने सरकार की इज्जत बचा रखी है यदि ऐसा नहीं हुआ, तो बेरोजगारों की जो लंबी लाइन है वह कमतर हो गयी होती. फिर अफसरों के बेटे-बेटियां क्या करते? उच्च पद इन अंग्रेजी के ज्ञाताओं के नाम रिजर्व है. आप और हम अनावश्यक आरक्षण की मांग कर सभा, धरना और जुलूस निकाल कर अपना समय खराब कर रहे हैं और पुलिस के डंडे की मार से चोटिल हो रहे हैं.
सभी पार्टियों के नेता अपने भाषणों में एक रटा रटाया वाक्य कहते हैं-हमारे लिए कोई छोटा-बड़ा नहीं है. हम चाहते हैं हर तबके का बच्चा पढ़े-लिखे. शिक्षा से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है. शिक्षित समाज ही देश को प्रगति की ओर ले जाता है. कोरी बातें हैं. गांव-गांव में स्कूल खोले गये हैं, जहां अंग्रेजी की शिक्षा देने कोई शिक्षक नहीं है, फिर ऐसी शिक्षा का क्या लाभ? आबेदन अंग्रेजी में, फाइल में टिप्पणी अंग्रेजी में. अधिकारियों की बैठक में चर्चा अंग्रेजी में. वहां आपका क्या काम? भोकवा (नासमझ) की तरह आपकी उपस्थिति की क्या जरूरत?
अधिकारी का बेटा और उससे छोटे पद के कर्मचारियों का बेटा क्या एक ही कक्षा में पढ़ेंगे? ऐसा कैसे हो सकता है, जिस बाप ने (अधिकारी) अपने मातहत को अंग्रेजी में गाली देकर खुद को दिनभर के लिए तरोताजा कर लिया हो उसी का बेटा अधिकारी के बेटे के साथ एक ही लाइन में बैठ कर पढ़ेगा, कदापि नहीं?
अंग्रेजी उच्च शिक्षा का माध्यम है. अंगे्रजी का ज्ञान नहीं तो उच्च शिक्षा नहीं रहेगी. उच्च शिक्षा ही समाज में ऊंच-नीच बनाये रखने का सटिक माध्यम है. अंग्रेजी आपने नहीं पढ़ी या आपके भेजे में नहीं घुसा तो ये आपका दोष. बाद में आप खुद पछतावा करेंगे कि क्यों नहीं सीखी. आप हिन्ही भाषी हैं, तो आपकी अपनी अलग जमात है, जिनके बीच आप उठते-बैठते हैं और खुद को सहज महसूस करते हैं वरना किसी ने दो लाइन भी अंग्रेजी की बोली आप अपलक उसे निहारते रहते हैं. उसकी बात से सहमत नहीं होने पर भी अपनी मुंडी ( सिर) हिला देते हैं क्योंकि आपमें उससे बहस करने का माद्दा नहीं है.
 जैसे ही अंग्रेजी हटी तो सभी लोग बराबर हो जायेंगे. भारत में जनतंत्र हो जाएगा. अंग्रेजी ही भारतीय संस्कृति का रक्षक है. जनतंत्र आते ही आम लोगों का तीसरा नेत्र खुल जायेगा और जब तीसरा नेत्र खुलता है, तो प्रलय आने से कोई नहीं रोक सकता. अंग्रेजी के कारण ही अनेक गुप्त बातों को सार्वजनिक रूप से कहा जा करता है. किसी को कुछ समझ ही नहीं आता. अपका ड्राइवर, सहायक एक कान से इस अटपटी भाषा को सुन कर अनसुना कर देता है और खुश होता है कि मैं एक ऐसे अधिकारी के साथ कार्यरत हूं, जो रोबिला है, उसकी बात कोई मातहम काट नहीं सकता.
जय हो अंग्रेजी तूने भारत देश को एक नयी दिशा दी है. तेरे कारण ही ज्ञान के भंडार में हम गोते लगा रहे हैं.
शशि परगनिहा
18 मार्च 2013, सोमवार
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Saturday, March 16, 2013

संबंधों को समझें-सहेजें

  संबंधों को समझें-सहेजें
छत्तीसगढ़ में महिलाओं पर अत्याचार बढ़ने के आंकड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं, जिसमें मारपीट, टोना-टोटका, बलात्कार और दैहिक शोषण के मामले सर्वाधिक है. राजधानी में पिछले एक वर्ष में 1216 मामले दर्ज हुए, तो दुर्ग जिले में 528, बिलासपुर जिले में 450, वहीं बस्तर के दंतेवाड़ा में 59, नारायणपुर में 12 और बीजापुर में 10 मामले सामने आये हैं.
लालच
छत्तीसगढ़ में दहेज प्रताड़ना का मामला बढ़ने का मुख्य कारण है लालच. कभी यहां के गांव में शादी पर वधु पक्ष से वर को सायकिल दी जाती थी तो अब बगैर मोटर साइकिल के काम ही नहीं चलता वहीं जिनकी हैसियत अच्छी है वे चार चक्का वाहन की आस लगाये रहते हैं. वर को घड़ी देने की परम्परा भी खत्म हो गई है. अब गले में मोटी और लंबी चेन और अंगुली में सोने के हीरे जड़ित अंगुठी चाहिए. कैश की बात न ही करें, तो ठीक है क्योंकि लड़के की शैक्षणिक योग्यता और उसकी नौकरी के आधार पर यह रकम तय होती है. यदि किसी ने प्लेटिनम धातु की अंगुठी या अन्य जेवर वर या वर पक्ष के किसी सदस्य को भेंट की, तो उसकी वैल्यू उन्हें समझ नहीं आती और चर्चा होने लगती है-काय दे हे दई स्टील असन दिखत हे, सोन के दे रीतीस त कामो अतिस.
टोना-टोटका
टोना-टोटका जैसा कुछ होता नहीं, पर इसकी आड में एक दब्बू और असहाय परिवार को प्रताड़ित होना पड़ता है. यह आरोप (टोनही) अक्सर उस महिला पर लगाया जाता है, जिसके पक्ष में दमदार पुरूष नहीं होता या उस महिला के पास जमीन-जायजाद हो, जिसे अपने परिजन या वह व्यक्ति जिसकी नजर इस सम्पति पर अटक जाती है, लगाता और सार्वजनिक रुप से रोंगटे खड़े हो जाने की हद तक प्रताड़ित कर गांव से भाग जाने की सीमा तक चला जाता है, जिसमें अंजाने में ही सही गांव के अन्य लोग भी उस एक महिला या उस परिवार के खिलाफ झंडा गाड़ देते हैं.
 शोषण
बलात्कार और दैहिक शोषण का मामला गंभीर है, पर हम इसके एक पहलु पर ही नजर डालते हैं. दैहिक शओषण की रिपोर्ट तब दर्ज होती है, जब दोनों की रजामंदी के बीच कोई तीसरा आ खड़ा होता है. पुरूष को कोई और रिझाने लगता है या महिला-युवती की नजर में किसी अन्य पुरूष की चाह होने लगती है. कभी एक दूसरे पर मर-मिटने की कसमें खाने वाले अचानक अपनी नजरें चुराने लगते हैं या शादी के लिए दबाव बनने लगता है या फिर असावधानी के चलते गर्भ ठहर जाता है.
संतुष्टि
बलात्कार उसे भी कहते हैं जब दोनों में से एक दैहिक संबंध बनाने के लिए राजी न हो. ऐसा पतिपत्नी के बीच भी होता है. पति की इच्छा हो और पत्नी तैयार ना हो तब भी यदि संबंध बने तो वह बलात्कार की श्रेणी में आता है, पर कितने पति-पत्नी हैं, जो इस विषय में खुल कर बातें करते हैं और एक दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं? और कौन सी पत्नी है, जो अपने पति के काम-लोलुपता को अपनी सहेलियों, सास, मां आदि से शेयर करती हैं?
मारपीट करना आम बात है. पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका के बीच मारपीट हो तो समझ जायें पति या प्रेमी दैहिक संतुष्टि चाहता है, जो पूरा नहीं हो रहा है. सारा रिश्ता देह से शुरू होकर शरीर में ही समाप्त होता है. जहां संतुष्टि है, तो पति प्रेमी आप पर हाथ उठायेगा तो स्पर्श करने के लिए, ना की चोटिल (तन-मन को) करने.
दहलीज
लगातार उलाहना, प्रताड़ना या बेरूखी ही बाद में संबंधों को तार-तार करती है. एक बार संबंधों में खटास आ जाए, तो लंबे समय के रिश्ते को टूटने में पल भर नहीं लगता और यहीं से घर की दहलीज लांघ कर युवती-महिला जिसे असीम प्यार करती थी अचानक नफरत करने लगती है और उसे बर्बाद करने की हद तक जाकर न जाने कैसे-कैसे झूठे आरोप लगाती है.
दूरियां
इन अपराध के आंकड़ों को कम किया जा सकता है. पतिपत्नी, प्रेमीप्रेमिका की काउन्सलिंग जरूरी है. उन्हें समझाना होगा कि समस्या की शुरूआत कहां से हो रही है. पहले उनकी बातों को धैर्य के साथ सुना जाए और उनकी आदतों को समझा जाए. क्या पुरूष उग्र स्वभाव का है या स्त्री घरपरिवार को साथ लेकर चलने से परहेज करती है? जरूरी हो तो मनोचिकित्सक की भी मदद ली जा सकती है. पर क्या ऐसा होता है? जब हम एक दूसरे को समझेंगे नहीं उनकी भावनाओं की कद्र नहीं करेंगे, तो रिश्तों में दूरियां आयेंगी और थाने से कोर्ट तक का सफर शुरू होगा, जो किसी भी हालत में सही नहीं है.
शशि परगनिहा
16 मार्च 201ॅ3, शनिवार
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Wednesday, March 6, 2013

तृप्ति

तृप्ति
गांव का चरवाहा और गोबर बीनने वाली बच्ची या नवयुवती, इनका साथ कभी नहीं टूटता. चरवाहा गाय, बैल, भैंस और बछिया लेकर निकलता है, जो दिन ढलने के बाद अपने ठहिया में लौटता है. चरवाहा किसी पेड़ की छांव में दोपहर गुजारता है. अब उसके पास मोबाइल आ गया है, जिसमें फिल्मी गाना सुनता बैठा रहता है. पहले यही चरवाहे मुरली की तान दे इन पालतु जानवरों को एक क्षेत्र से आगे जाने से रोक कर रखते थे और उस चरवाहे की एक हॉक से ये पशु इकट्ठा हो जाते थे, पर अब समय के साथ इनकी चाल बदल गई है. वह गाना सुनता पेड़ की छांव में अपने गमछे को बिछा सो जाता है या अन्य चरवाहों के साथ जुआ खेलता है और पैसे का जुगाड़ हो गया तो वहीं जाम से जाम टकरा लेता है. इधर जानवर चारा की तलाश में इधर-उधर मुंह मारते रहते हैं.
गांव की कुछ लड़कियां, जिन्हें पढ़ाई करना तकलीफदेह लगता है, वह घर के काम में हाथ बटाने की बात कह सिर में एक टोकरी रख गोबर बीनने इस जानवरों और चरवाहे के पीछे-पीछे निकल जाती है. मॉ-बाप भी खुश की आधा-एक एकड़ की जो जमीन है, उसमें खेती करने के लिए यह खाद बनेगा, घर की लिपाई करने के काम आयेगा और कण्डे भी तो बनेंगे, जो चूल्हा जलाने के काम आयेगा.
ये बच्चियां आधा पेट बासी (रात के बचे चावल को भीगा कर रखा खाना) नून (नमक) और लोटा भर पानी पीकर अपने शरीर को धूप या पानी से बचाने का जतन किये बिना उस टोकरी को ले निकल जाती हैं. मौसम अनुसार इमली की पत्ती उसका बीज या इसी तरह की चीजें वे खाती और पास में तालाब हो तो उसका या फिर किसी गड्ढे में पानी है तो उसी को पी लेती हैं. कितना गोबर इनकी एक छोटी सी टोकरी में इक्टठा होता है पता नहीं पर पूरी दोपहर वे इसी में लगी रहती हैं और यहीं उस चरवाहे और खाली-पीली घूम रही लड़की के बीच संवाद का सिलसिला शुरू होता है.
संवाद के बीच अश्लील वार्तालाप कर चरवाहा या उन युवकों की टोली जो स्कूल से मध्याह्न भोजन करने के बाद स्कूल छोड़ भाग जाते हैं. एक जगह अपना बस्ता पटक उस गोबर बीनने वाली लड़की से छेड़-छाड़ करने लगते हैं.
बच्ची उनके साथ घुल-मिल गई तो अच्छा है वरना दोपहर में जब सभी अपने-अपने घरों में सोये होते हैं यहां हवस का खेल बेरोक-टोक हो जाता है. बच्ची नासमझ है. वह घबराती है, पर बाद में वह इसकी आदी हो जाती है. यदि किसी बच्ची ने इसकी जानकारी अपने घर में दे दी तो पहले थाने में रिपोर्ट लिखाने की धमकी-चमकी होती है. समाज की बैठकी होती है. चौपाल में यह मुद्दा गरमाता है. पुलिस मजे लेती है. वह रिपोर्ट नहीं लिखती. अगली पार्टी से यदि वह पैसे वाला हुआ तो रूपये ऐंठती है. वही आपसी रजामंदी का खेल शुरू हो जाता है.
अंत सभी को पता है. रूपयों का लेन-देन और शराब-कबाब के साथ सारा मामला निपटा लिया जाता है. गोश्त के साथ चंद रूपयों का खाना-खर्च पूरे मामले को रफा-दफा कर देता है. उस बच्ची को कुछ समझ आता है या नहीं पर इस तरह के भोज में लड़की पक्ष के लोगों की भागीदारी देखते बनती है. वह बच्ची भी लंबे अंतराल के बाद भरपेट भोजन खाकर तृप्त नजर आती है.
शशि परगनिहा
6 मार्च 2013, बुधवार
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Saturday, March 2, 2013

हमको नंगरा समझता है...

हमको नंगरा समझता है...
(राजधानी से कुछ  किलो मीटर के बाद कुछ इसी तरह के संवाद जब-तब आप सुन सकते हैं. मेरी बात में सच्चाई है. एक गरीब छत्तीसगढ़िया हिन्दी तब बोलने लगता है, जब कोई अच्छे कपड़े पहन उसके पास आ खड़ा होता है या जब वह शराब के नशे में होता है. बीपीएल चावल और हर गांव-शहर, गली-मोहल्ले में शराब की दुकान खुल जाने से वह और गरीब तथा अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड कर रहा है. मेरे लिखे वाक्य एक गरीब मजदूर के शब्द हैं, जो अश्लील लग लगते हैं, पर गांव-खेड़े में ऐसी बोली मां-बेटी-बहन-पत्नी सभी के सामने निर्लज्जता के साथ बोली जाती है. )
-ये टूरी ला भगा भोसड़ी के...ओधे लेवत हे.
-काय बोलत हंव...साले भीतरी में खुसरे हे. लेग ये ला.  ये तोर...कइसे भाखा नहीं फूटत हे. रेमटी टूरी के नाक ला पोछ. रेमट हर मुंह तक चुचवा गेहे. रो-रो के दिमाग ला खा डरिस.
- भूखाये हे बपरी हर. जा न थोकन चाउर ्बसा के लान दे.
- तोर डाक्टर किथे (डाक्टर मुख्यमंत्री के लिए) डाक्टर हव लोगन के नब्ज ल पहिचानथव. बोकर तो... जा अपन नारी (नब्ज) ला देखा के आबे. उसी तोला चाउर दिही.
-लेग न ओ टूरी ला. ये टूरी मुड़ी में मूतही का. साले घर में रीबे त इही कॉव-कॉव अऊ बाहिर रिबे त तोर चॉव-चॉव. जाथंव ठइंहा में उहे कल परही.
-तोला पीये के बहाना चाही. दू दिन होगे चुल्हा जरे नइये...पीये बर पइसा आ गे.
ये मादर...
000
नशे में धूत घर लौटने पर-
-टूरी काय खात हे?
- दाई (दादी) घर ले नोनी ला रोवत देख बासी भेजे हे तेने ला खात हे.
- साले हमको पैसा दिखाता है. (पड़ोस में शराबी के माता-पिता का घर, जिन्हें उंची आवाज में सुनाते हुए) हमको नंगरा समझा है.
शशि परगनिहा
2 मार्च 2013, शनिवार
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Friday, March 1, 2013

घर किले में तब्दील





घर किले में तब्दील
हद हो गई. अपने ही घर में प्रवेश करने कूद-फांद करना पड़ रहा है. रात में ऐसे घर पहुंचना जैसे चोरी करने एक दीवार से दूसरे घर की दीवार फांद रहे हों और कोई देख ना लें यह भी भय बना रहे.
रात में डयूटी कर लौटती हूं तो क्या देखती हूं मेरा घर किसी राजा का किला बन गया है, जिसके चारों ओर 4 से 6 फीट चौड़ा और लगभग उतना ही गहरा खड्डा है. अब करें तो क्या करें? गनीमत रही कि पड़ोसी का डोर बेल स्वीच उनके घर की चारदीवारी में है. बेल बजाने से 5 मिनट बाद उनका दरवाजा खुला. मुझे देख चकराये से उनके चेहरे में प्रश्न दिख रहा था. मैंने कहा-मुख्य द्वार का ताला खोल दें तो अपके बाउण्ड्रीवाल से कूद कर अपने घर पहुंच सकूं.
उन्होंने ताला खोला और कहा- आप अपनी गाड़ी कहां रखेंगी?
- एक पड़ोसी को नींद से जगाया है अब पड़ोसी के पड़ोसी के पड़ोसी के पड़ोसी के घर अपनी एक्टिवा को रख लेने निवेदन करना पड़ेगा.
खैर एक्टिवा को पनाह मिल गयी, पर उसे लॉक कर रही थी तो मेरी चुन्नी उसमें फंस गयी, जैसे कह रही हो- मुझे अपने से दूर कर दुखी नहीं हो रही हो? मैं हमेशा तुम्हारे साथ रही. तुम डयूटी करती रही तो मैं प्रेस के स्टैण्ड में कुछ ही मीटर की दूरी में रही. तुम रात में घर पर रही तो पोर्च में एक दीवार के फासले में रही. अब ऐसा क्यों कर रही हो. मुझे अपने साथ ले चलो. मुझे यहां रात नहीं काटनी.
मैंने उससे विदाई लेते हुए कहा लगता है हमारी दोस्ती लोगों को रास नहीं आ रही. जालिम जमाना हमें जुदा करने षडयंत्र कर रहा है. कोई बात नहीं जैसे ही नाली निर्माण का काम हो जायेगा मैं तुरंत घर का पाटा बनवा लूंगी, पर एक सप्ताह की दूरी तुम्हें सहन करना होगा. हम दिन में साथ ही रहेंगे रात के कुछ घंटे तन्हा-तन्हा गुजारना होगा.
सुन्दर नगर कालोनी में इन दिनों अच्छे-खासे नाली को तोड़ कर उसका पुनर्निर्माण कार्य चल रहा है, जिसके कारण मेरी लाइन के सभी घरों का पाटा टूट गया है. मेरे घर का पाटा मेरी अनुपस्थिति में मेरी अनुमति के बगैर कैसे तोड़ा गया इस बात से गुस्सा थी. सुबह जब ठेकेदार आया तो तमतमा कर मैंने अपना विरोध जाहिर किया और उसी वक्त महापौर से बात की. ठेकेदार अब लड़खड़ाया क्योंकि निविदा तो किसी और ने भरा और उसने किसी और को ठेका दे दिया है. उस पर कहता है पाटा हम बना देंगे, जो खर्चा आयेगा दे देना. ये क्या बात हुई. तोड़ो तुम और हर्जाना हम दें. पूरी बात महापौर से होने पर उन्होंने निश्चिंत रहने कहा है. आश्वासन दिया है आपके घर का पाटा जैसा था वैसा ही बना कर दिया जायेगा. पार्षद और उस वार्ड के अधिकारी को फोन कर दिया है. देखें नेताओं के हां-हां में कितना दम है.
शशि परगनिहा
1 मार्च 2013, शुक्रवार
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