Thursday, August 5, 2010

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"·" से "·ौवा"
जन ग ा मन अधिनाय·... ये गिरा... हॉ..हॉ...हॉ..., ·विता
अपवि ा हो गई. आसपास ·ी लड़·ियों ·ी नजर पीछे ·ी
तरफ हो..हो...हो..., लाईन से खड़ी पीछे ·ी तरफ ·ी
सभी लड़·ियॉ खुसूर-पसूर में व्यस्त. जय-जय-जय हे.
भारत माता ·ी जय... खीं...खीं...खीं.....
सभी लड़·ियां जिस लाईन में खड़ी थीं, उसी ·्रम से
अपने-अपने लास रुम ·ी ओर नि·ल पड़ी. रुम में
पहुंचते ही ·विता खुद ·ो असहज महसूस ·रने लगी और
पिरेड शुरु होने से पहले रानी ·ो साथ ले·र बाथरुम ·ी
ओर नि·ल पड़ी. सफेद शर्ट और लाइट लू स्·र्ट ·ो
·विता ठंडे पानी ·े छिंटे से पोछने ·ा प्रयास ·रने लगी.
रानी ·ो हंसी आ रही थी, पर या ·रे अपनी सहेली ·ी
पीड़ा ·ो समझते हुए उस दाग ·ो साफ ·रने में लग गई.
दरअसल वह दाग ·विता ·ी पीठ से होते हुए स्·र्ट त·
लगा हुआ था. जैसे-तैसे उसे साफ ·र जब वे लास रुम
में पहुंची, तो लास टीचर अटेंटें स लेने में लगी थी.
-माई ·मीन मैम...
- ·हां थी तुम दोनों?
मैम चंपा ·े पेड़ में बैठे ·ौवा ने जन-ग ा ·े समय बीट
·र दिया. उसे साफ...
- चलो-चलो अंदर आ जाओ.
लंच ब्रे· ·े समय सभी सहेलियां जब अपना-अपना
टिफिन नि·ाल ·र खाने बैठी तो ए· बार फिर ·ौंवे ·ी
तरह सभी ·ांव-·ांव ·रने लगी.
·ौवे ·ा हर दूसरे-तीसरे दिन ·िसी न ·िसी ·े सिर पर
बीट ·रना लगा रहता था.
स्·ूल छूट गया और यह बात धुंधली पड़ गई. संगी-साथी
छूट गये. सब अपनी-अपनी दुनिया में रम गये.
बहुत सालों बाद पितर पक्ष में जब मॉं पितर ·ा भोजन रखी
और उसे ·ौवा नहीं ले गया, तो मॉं दुखी हो गई. ·हा- न
जाने तु हारे पूर्वजों ·ो शांति मिली ·ी नहीं. ·हीं ·मने
·ोई गलती तो नहीं हो गई?
मॉं पूरे दिन अशांत रहीं.
उन·ी बेचैनी देख हम भी दुखी हो गये.
प द्रह दिन ·े पितर पक्ष में सचमुच पूरे शहर में ·हीं ·ौवें
नहीं दिखे.
जब पूरा शहर महानगर में त दील हो रहा हो और ·ल-
·ारखानों ·ा प्रदूष ा खेतों ·ी खड़ी फसल ·ो ·ाला ·र
रहा हो. प्रदूष ा से सड़·ें, गलियॉ, ार, छत सभी में
·ालिख पूत गई हो. बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, बहुमंजिला
इमारतें बन गई हों, लोगों ·ो रहने ·े लिए ार नसीब नहीं
हो रहा हो, पांच हजार से सात हजार वर्गफीट ·ी जमीन में
साठ परिवार छोटे-छोटे लैट में सिमट गये हों, तो ·हां से
·ोई पछी खुले आसमान में स्वछंद विचर ा ·रेगा और ·ैसे
·ौवें ·ांव-·ांव बोलेंगे.
ार ·ा आंगन, जहां ठंड ·े दिनों में मॉं बडी-पापड बनाने
बैठती थी, हम भाई-बहन धूप से·ा ·रते थे या फिर
छुट्टिïयों में रेस टीप खेला ·रते थे. वो तो अब ·हीं देखने
·ो नहीं मिलता. जब हमारा अपना दायरा सिमट ·र
8बाई10 ·े ·मरे और टीवी ·े इर्द-गिर्द मनोरंजन तलाश
रहा हो, तो हम ·ैसे पक्षियों ·ो ठी· से पहचान पायेंगे.
मेरे गांव वाले ार में मॉं ·े रहने पर नौ·र रोज छत पर
धान, चावल, गेहूॅं, चना, मसूर आदि रखते थे और बड़े-बड़े
ाड़ें जिसमें पानी भर ·र रखा जाता था, वो अब गांवों में
भी देखने नहीं मिलता. खेतों में धान ·े प·ने ·े बाद
उस·ो पिरो ·र नौ·र दे जाया ·रते थे, वे भी अब ·ितने
ारों ·ी बाहरी दीवारों पर टंगे मिलते हैं? ार ·े ऑगन में
अब ·ौन चावल ·े दाने इन पक्षियों ·े लिए छोड़ता है?
जब हम स्वयं इन पक्षियों ·े भोजन ·ी व्यवस्था नहीं ·रते
तो वे ईंट गारे ·े दह·ते जंगल में ·ब त· विचर ा ·रेंगे?
यहां न तो हरियाली है, ना ऐसे वृक्ष जिनमें वे अपना बसेरा
बनायें? या हम अपनी आने वाली पीढ़ी ·ो चिडिय़ा ारों
में ही इन खूबसूरत पक्षियों ·े नाम से परिचित ·रायेंगे या
फिर उन तस्वीरों में अंगुली रख ·र ब"ाों ·ो बतायेंगे- ये
तोता है, ये मैना, ये बुलबुल, ये मोर और ये ·ौंवा?
शशि परगनिहा
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2 comments:

  1. अच्छी कहानी है.
    पर कहीं-कहीं पर शब्द अस्पष्ट से हैं

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  2. rajiv
    bhut achchh lga jb comments mila varna yhi lag rha tha khud likho khud pado. aapne jo slah di hay us par amal karungi. darasal blog me aana mere leye akadam nya hay, so thidi hadbdahat hay. meri likhi bato ko kee tade to jo sukh ki anubhuti hoti hay, vah mahsusas kar rhi hu. dhanyavad. shashi parganiha

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