Thursday, February 28, 2013

कोलकाता हादसा


कागज की चादर ओढ़
खामोश हो गये
गहरी नींद में
कि उस रात का कभी सवेरा न हुआ....
शशि परगनिहा
28 फरवरी 2013, गुरूवार
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बोलती बंद

बोलती बंद
-अरे शशि तू यहां बैठी है?
-आॅफिस में और कहां बैठूंगी, यही मेरी सीट है.
-एक समाचार छपाना है. मेरे बैंक का है.
-मेरा इसमें कोई रोल नहीं है. ये समाचार वाणिज्य पेज में जाएगा. इसे जो देखते हैं, उन्हीं की सीट में तुम बैठे हो.
-तुम मैनेज कर लेना.
-नहीं में इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती. सभी के विभाग बटे हुए हैं. हां मैं तुम्हारी तरफ से निवेदन कर दूंगी कि छाप दो.
-फिर छप ही जाएगा.
-और क्या हाल है?
बातों का सिलसिला चल निकला. अब तक मैं उसे पहचान नहीं पायी थी, पर जब पुरानी बांते खुलने लगी तो याद आ गया कि हमने साथ में पत्रकारिता की है. अब वह 2 बच्चों का पिता है और बैंक में मैनेजर की प्रमोशन पर बस्तर में कार्यरत है.
इस दोस्त का जिक्र इसलिए कि जब हम साथ पढ़ाई कर रहे थे, तो नोट्य का आदान-प्रदान किया करते थे. रात में हमारी क्लास लगती थी और कई ऐसे सहपाठी भी थे, जो अपने नाम के साथ एक और डिग्री जोड़ कर अपने नाम की लाइन को लंबी करना चाहते थे. कुछ हम उम्र थे, तो अनेक शादी-शुदा और नौकरीपेशा भी. रात में कालेज चलने से लड़की होने की वजह से सप्ताह में एक-दो दिन कालेज जाते नहीं थे, पर यह बंदा हर दिन क्लास अटेण्ड करता था इसलिए नोट्स की जरूरत पड़ जाती थी और बातचीत भी होती थी.
एक दिन न जाने वह मेरे घर नोट्स लेकर पहुंच गया. मैंने सहजता से उसे बैठने कहा. वह बैठा भी और नोट्स देकर 5 मिनट में लौट गया लेकिन इसके बाद मेरे भाई ने जो हंगामा किया उसकी मुझे कल्पना नहीं थी. मेरे हाथ से नोट्स छिन कर भाई ने उसके एक-एक पन्ने को खंगाल लिया. उसे कहीं कोी लव लेटर या आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं मिली, पर अपने कृत्य को सहीं साबित करने घर सिर पर उठा लिया. मां पहले आयी फिर पिताजी. माजरा क्या है जानने की कोशिश हुई. तर्क-वितर्क होते रहे लेकिन मैंने अपने भाई के एक प्रश्न कि-वह आखिर कौन है और यहां तक कैसे आया? तेरा उसके साथ रिश्ता क्या है?
मैंने सहजता से सिर्फ इतना कहा-तुम खून के रिश्ते से मेरे भाई हो और वह सहपाठी है, तुम्हारी तरह वह भी मेरे भाई की तरह है.
घंटे भर चले उत्तेजित माहौल में अचानक शांति छा गई. मां चौके में चली गई. पिताजी अपने कमरे में और भाई निरूत्तर हो सिर के बाल खुजाने लगा.
शशि परगनिहा
28 फरवरी 2013, गुरूवार
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Wednesday, February 27, 2013

अधेड़ पुरूष की चाहत

अधेड़ पुरूष की चाहत
जिन्दगी कितनी अजीब है और लोगों की जरूरतें भी. मेरा अभी कुछ दिनों पहले एक सेवानिवृत्त अधिकारी से पाला पड़ा, जो नौकरी करते तक अविवाहित रहे. उम्र अनुसार परिजनों-मित्रों ने उन्हें शादी कर लेने की सलाह दी पर वे इस वर्ष नहीं यही रट लगाते रहे अ‍ैर वह दिन आया जब लोगों ने उनसे विवाह कर लेने की समझाइश देनी बंद कर दी.
नौकरी में ऐसे रमे कि आसपास से बेखबर हो गये. नियमित दिनचर्या रिटायर होते ही बदल गयी. अब समय ही समय ... और कोई काम नहीं. परिवार से दूर रहने के कारण वो अत्मीयता नहीं रही कि अब उनसे जुड़ने की कोशिश करें तो उनके अपने उन्हें सहजता से लें.
बातों-बातों में उन्होंने शादी की ख्वाहिश जाहिर कर दी. किसी लड़की के बारे में पूछने लगे. मैंने कहा अब आप अपने परिवार की किसी कन्या को अभिभावक की तरह पालें, उसकी अच्छी परवरिश करें ताकि वह शिक्षित हो अपने पैरों पर खड़ी हो सके. मेरी बात को सिरे से काटते हुए उन्होंने कहा-मेरी लाखों-करोड़ों की सम्पति का क्या होगा? मुझे वारिश चाहिए?
बात लंबी चली पर सार यही रहा कि उन्हें इस उम्र में ऐसी सुघड़ महिला-युवती चाहिए, जो उनके खान-पान, समय पर दवाई अ‍ैर जरूरत पड़ी तो हाथ-पैर दबा सके अ‍ैर एक पुत्र वारिश भी तो चाहिए. कुल जमा..एक नौकरानी, जो समाज की नजरों में पत्नी कहलाए अ‍ैर उनकी यौन इच्छाओं की पूर्ति कर सके.
इन दिनों में खुशवंत सिंह का उपन्यास औरतें पढ़ रही हूं, जिसमें उपन्यासकार ने मुख्य पात्र मोहन की अपनी पत्नी से तलाक के बाद की स्थिति खास जो सेक्स की तलाश में भटक रहा है, का यथार्थ चित्रण किया है. उन्होंने स्पष्ट लकीर खींची है कि आदमी जब वृध्द होने लगता है, उसकी कामेच्छा शरीर-मध्य से उठकर दिमाग की ओर बढ़ने लगता है. अपनी जवानी में वह जो करना चाहता था अ‍ैर अवसर के अभाव, घबराहट या दूसरों की स्वीकृति न मिलने के कारण नहीं कर सका, उसे वह अपने कल्पनालोक में करने लगता है.
इस उपन्यास का जिक्र इसलिए  कि औरतें पढ़ते-पढ़ते मुझे उस रिटायर अधिकारी की याद ताजा हो गयी. कितना आसार है एक पुरूष के लिए जिसकी चाह होती है एक ऐसी स्त्री की, जो हमेशा उसकी हमराह हो, उसके साथ हम-बिस्तर भी हो सके, पर उसकी स्वतंत्रता में कभी दखल ना दे. वह घर में नौकरानी की तरह काम करती रहे...अपनी जरूरतें न बताये...खामोश उसकी आज्ञा का पालन करे और उसकी सेक्स की पूर्ति के लिए हर वक्त तैयार रहे.
शशि परगनिहा
27 फरवरी 2013, बुधवार
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Monday, February 25, 2013

क्षमा बडन को चाहिए छोटन को....

क्षमा बडन को चाहिए छोटन को....
एक ब्राह्मण, एक योध्दा, एक व्यापारी, एक कलाकार-इन चारों का मूल मानवीय चरित्र एक सा होता है. ये सभी जन्म और मृत्यु के समय असहाय होते हैं. इन सभी में प्रेम और क्रोध जैसे भावावेग रहते हैं, पर ब्राह्मण के व्यक्तित्व को नियंत्रित करती है-शास्त्र नीति, योध्दा के  व्यक्तित्व को रणनीति, व्यापारी के  व्यक्तित्व को व्यापार नीति और कलाकार के  व्यक्तित्व को कला प्रवणता. वैसे ही राजपुरूष के  व्यक्तित्व की मुख्य दिशा है राजनीति. किसमें उसका स्वार्थ है और किसमें उसके स्वार्थ का विरोध है इसका निरूपण राजनीति के मापदंड ही करते हैं.
कुछ ऐसी ही नीति को अपना अस्त्र बना छत्तीसगढ़ प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ने एक जाति विशेष के खिलाफ तीर कमान से निकाल दी है, पर दूसरी ओर भी भेदी तीर को रोकने की क्षमता है. ये ऐसी चोट है, जो शरीर को भेद नहीं पायी, पर मन-मस्तिष्क को लहु-लुहान कर गयी. क्रिया पर प्रतिक्रिया का दौर चल रहा है. मामला थाने में पहुंच गया है.
छत्तीसगढ़ में कुर्मी समाज के लोगों की संख्या नगण्य नहीं है कि आप भरी सभा में अंबुजा सीमेंट संयंत्र के खिलाफ आयोजित धरना-प्रदर्शन में विवादास्पद टिप्पणी कर खामोश हो जाए और हमारे शरीर में संचालित रक्त पानी हो जाए. हमारी खामोशी और उव्देलित नहीं होने को हमारी कमजोरी न समझे. हम तब प्रहार करते हैं, जब आप मदमस्त हो आपा खो बैठते हैं. हम तो इस इंतजार में थे कि विधानसभा में कितने दम-खम के साथ मामला उठाया जाता है और न्याय दिलाने की कोशिश होती है. वहां तो हवा गुल हो गयी. मामला जरूर उठा लेकिन किसी ने वाक आउट नहीं किया. मतलब तो यही निकलता है कि जिसे हमने अपना प्रतिनिधि चुना वह बौना है.
अंबुजा में हुए हादसे पर मैंने पहले ही अपने विचार रख दिये हैं. मैंने इस पर तीखी टिप्पणी की थी, पर क्या हुआ? क्या विधानसभा में किसी नेता ने अपनों की शहादत पर सत्ता पक्ष के नेताओं को झकझोरा, नहीं ना. फिर इस मुद्दे को अंबुजा संयंत्र में धरना प्रदर्शन व सभा लेकर क्या जाहिर करना चाहते हैं? क्या ऐसा कर हम उन मृतकों को श्रध्दांजलि दे रहे हैं? या उस लहू के छिंटों से खुद की बगीया सींच रहे हैं?
हम छत्तीसगढ़िया, हम कुर्मी. हमें नाज है कि हम अपनी पहचान कायम रखे हैं. हमें खुद पर फक्र है कि हम अपने मेहमान को सिर-आखों में बिठा कर रखते हैं. हममें सहनशीलता है, धैर्य है. हम उजबक नहीं हैं कि जब-तब किसी का हाथ-पैर तोड़ें, हाथा-पायी करें, लोगों पर डंडे बरसायें.
मुझसे एक बार किसी ने कहा था- छत्तीसगढ़िया प्रगति नहीं कर सकते. वे हम जैसे बाहरी लोगों को अपने उपर बिठाते और उनकी जी-हुजूरी करते हैं. इन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं आता. शायद उन्हें नहीं मालूम था कि जिससे वे यह बात कह रहे हैं, वह इसी माटी में जन्मी है. आज वही बंदा अपनी उस कुर्सी और केबिन में बंद है. वह किसी से बात करने में घबराता है कि न जाने ये छत्तीसगढ़िया क्या बात सहजता से कह दे कि दो-चार रातों की नींद हराम हो जाए.
पूर्व मुख्यमंत्री सयाने हैं. वे हमें भड़काना चाहते हैं और इसी बहाने सुर्खिया बटोरने में लगे हैं. हमें अपने मूल व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाना है. हां पर हमारी नीति यह है कि तब प्रहार करें, जब लोहा गर्म हो. वे हमें भड़काने की बजाए अपनी राजनीतिक चाल से पीड़ित और दुखी परिवार को राहत दिलायें. सुर्खियां बटोरना हमें भी आता है, लेकिन हमारी फितरत मेहनत कर प्रगति करने की है. हम सीढ़ी-दरसीढ़ी चलते हैं. उछल कर शिखर को नहीं छूते. एक काम में जरूर हमें लग जाना है, जिस सार्वजनिक स्थल से उन्होंने विवादास्पद टिप्पणी की है वैसे ही मंच से हमारी जाति विशेष से क्षमा के लिए हाथ जोड़ दें.
क्योंकि- क्षमा बड़न को चाहिए,
छोटन को...............
शशि परगनिहा
25 फरवरी 2013, सोमवार
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Sunday, February 24, 2013

महिलाओं के हाथ खाली

  महिलाओं के हाथ खाली
आधी आबादी की ताकत को कमजोर करने अप्रत्यक्ष रूप से राज्य सरकार ने अपना काम कर दिया है. छत्तीसगढ़ के बजट में महिलाएं खाली हाथ है. उनके लिए ऐसी कोई लाभ की योजना नहीं है, जिससे वे खुश हो सके. महिला व बाल विकास और समाज कल्याण विभाग को मिला दें, तो उस मद में (1) 1533 आंगनबाड़ी भवन बनाने
 (2)  6 माह से तीन साल के बच्चों की देखरेख, पका भोजन देने पंचायतों में फुलवारी केन्द्र और
(3) महिला स्वसहायता समूहों को तीन फीसदी में कर्ज. ये तीन घोषणाएं हुई है, जिसका लाभ ग्रामीण क्षेत्रों में ही मिल पायेगा. शहरी क्षेत्र की महिलाओं के लिए आखिल है क्या? लगता है यह वर्ग सरकार की प्राथमिकता में नहीं है. वर्तमान में महिलाओं के साथ हो रहे दुव्यवहार की भी अनदेखी कर दी गई है. इस बजट में महिलाओं के संरक्षण, विकास और सशक्तिकरण की कोई योजना नहीं है.
बजट को लुभावना कहा जा रहा है. लग भी रहा है, पर सभी विभागों का सुक्ष्म अध्ययन किया जाए, तो आप ठगे से रह जायेंगे, क्योंकि महिलाओं के बाद बच्चे फिर युवा और बुजुर्गों के लिए बजट में आखिर है क्या? क्या बुजुर्गो को तीर्थ यात्रा करा देना और मुफ्त में साड़ियों का वितरण कर अगले चुनाव की वैतरणी पार लगायी जा सकती है? फिर बजट की राशि सभी विभागों में आने और उसके तुरंत बाद चुनाव आचार संहिता लगने पश्चात न जाने कौन सी पार्टी फतह हासिल कर लें.
चलते-चलते
वरिष्ठ पत्रकारों के लिए सम्मान निधि योजना एवं सभी पत्रकारों के लिए बीमा योजना की घोषणा हुई है. मेरे पत्रकार साथी जरा पता कर लें कि ये पत्रकार कहीं एग्रीडियेटेड की श्रेणी में तो नहीं आते यदि ऐसा है तो आपको इन सुविधाओं से वंचित रहना होगा, क्योंकि इस क्रम में कुछ ही पत्रकार शामिल हैं.
शशि परगनिहा
24 फरवरी 2013, रविवार
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स्वतंत्रता का अहसास

स्वतंत्रता का अहसास
कार पोर्च से बाहर निकाली. कार का दरवाजा खुला. चंद सेकेण्ड बाद बंद हुआ. गाड़ी स्टार्ट हुई और.... घर में अचानक तेज म्यूजिक बजने लगा कि कुछ क्षण के लिए मुझे कुछ समझ नहीं आया. काई पो चे फिल्म के गाने के साथ मोटी-मोटी सी सामुहिक स्वर भी उस गाने के साथ मधुरता को कर्कश कर रहे थे. दरअसल ये सभी अभी-अभी बचपने से युवा होने की दहलीज में कदम रख रहे हैं और इन्हीं दिनों इनकी आवाज में परिवर्तन आने लगता है, तब ये ना मर्द की श्रेणी में होते हैं और न बच्चे रह जाते हैं. मैं अपने घर में लिखने बैठी थी, पर इस तेज गीत और कर्कश ध्वनि ने मेरी तन्द्रा भंग कर दी. अचानक यह शोर कैसा जानने घर से बाहर आंगन में कदम रखी तो समझ में आया, पड़ोसी की कार उनके पोर्च से गायब है. याने जब तब मम्मी-पापा बाहर उनके घर में उनके दो बच्चों का साम्राज्य. तभी एक बच्चा दरवाजा खोल बाहर निकला. इधर-उधर ताकाझाकी की और दरवाजा बंद कर सुर में सुर मिलाने लगा.
मैं असहास सी कुछ भी करने लायक नहीं. सोचा नहा लिया जाए. नौकरी भी तो करनी है. तैयार हुई और जैसे ही डयूटी जाने घर से बाहर निकली पड़ोसी के घर में सन्नाटा. तभी पड़ोसी की कार उनके गेट के सामने रूकी. सब कुछ पहले की तरह. कहीं जैसे कुछ हुआ ही नहीं. बच्चों के दोस्त अपने-अपने घरों में. कुल 1 घंटे का धमाल.
आखिर ऐसा क्यो? क्या ये बच्चे अपने माता-पिता से भयभीत हैं? या इन्हें उनकी अनुपस्थिति अपनी स्वतंत्रता का अहसास दिलाते हैं? क्यों हमारे बच्चे हमारी उपस्थिति में हंगामा नहीं करते? क्यों हमारे और उनके बीच एक आवरण चढ़ा हुआ है? क्यों वे हमसे अपनी खुशी और दिनभर की कारगुजारियों को सांझा नहीं करते? क्यों हम उन्हें इतनी आजादी नहीं देते कि वे अपनी खुशी को घर में खुल कर व्यक्त कर सकें? क्यों वे इस इंतजार में रहते हैं कि हमारी गैर हाजरी में अपने दोस्तों के बीच शोर मचायें?
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Friday, February 22, 2013

नींद आयी और हमने तान ली चादर.......

नींद आयी और हमने तान ली चादर.......
- अरे क्या हुआ, ये सिर ढक कर कैसे सो रही है?
- भरी गर्मी में चादर तान कर पसीने से तर-ब-तर गहरी नींद में कैसे?
भारत में 99 प्रतिशत नवयौवना और युवतियां (कुछ शादीशुदा महिलाएं भी) हर मौसम में सोते समय चादर से अपने शरीर को ढक लेती हैं. बहुत गर्मी लगी तो पैर का कुछ हिस्सा चादर से हटा लेती हैं, पर गले तक चादर किसी सुरक्षा कवच की तरह उनके शरीर से लिपटा रहता है. उनके सोने की शैली जो भी हो चाहे दाएं करवट ले या बाएं या सीधे चीत लेटे या पेट के बल सुरक्षा का आवरण तब भी दामन नहीं छोड़ता.
 ऐसे ही कुछ युवतियों और महिलाओं को सिर से लेकर पैर तक ( किसी मुर्दे को कफन ओढ़ाने की मुद्रा में ) चादर तानने की आदत होती है.
यह आदत किसी युवक या पुरूष में क्यों नहीं? हां कुछ लोगों को जरूर ऐसी आदत हो, पर यह संख्या नगण्य है.
यहां बात अविवाहित युवतियों की हो रही है, तो प्रश्न उठता है कि जहां वह अपनों के संरक्षण में नवजात से नवयौवन में कदम रखी फिर किससे भय? जो उसे कवच की तरह चादर की जरूरत पड़ जाती है? क्या अपने ही लोगों से भय है? आखिर यह आदत उसे अपनी मां, दादी, बड़ी मम्मी, नानी, बुआ से कभी मिली है? क्या उसने अपनी बड़ी बहन, बुआ से यह आदत सीखी है या जब से वह पैदा हुई है, उसे बड़े स्नेह से मां ने इसी तरह ढक-तोप कर रखा है, जो समय के साथ-साथ उसका साथी बन गया.
कफन की तरह चादर ढकने के पीछे की वजह शायद यह हो कि मच्छरों के प्रहार से खुद को बचाना हो, क्योंकि मच्छर भगाने की क्रीम शरीर में मल लो या क्वाइल जलाओ या आॅल आउट का उपयोग करो सारे जतन धरे के धरे रह जाते हैं और मौका मिलते ही किसी प्रेमी की तरह ऐसी चुम्मी लेता है कि उसके जाने के बाद आप किसी प्रेमिका की तरह उसकी यादों में न चाहते हुए भी उस जगह अपने नरम हाथों से सहलाते रहते हैं.
मैंने इस अनुभव को सहजता से रेखांकित किया है, पर जिन्हें अलग-अलग विषयों में शोध करने में रूचि हो वे जरूर इसमें युवतियों की राय लेकर निष्कर्ष निकालें कि आखिर इसका राज क्या है?
शशि परगनिहा
22 फरवरी 2013, शुक्रवार
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परिधान या खिड़की में टंगे परदे

परिधान या खिड़की में टंगे परदे
बड़े और नामी डिजायनरों के तैयार परिधानों को देख कर ऐसा लगता है, मानों हम किसी आलीशान घर की खिड़की-दरवाजे में टंगे परदे को देख रहे हों. इन परिधानों में बाहें और गले (सामने और पूरी पीठ) उघड़ी हुई होती है, पर नीचे की लंबाई इतनी होती है कि लाल कारपेट में चलते समय झाडू लगाने की जरूरत नहीं पड़ती.
अधिकांश परिधान हिन्दुस्तानी परिवार की लड़कियों के पहनने लायक नहीं होते क्योंकि वे या तो इतनी छोटी होती है कि सिमटते-सिमटते कार में बैठना पड़ता है और जहां गये हैं वहां भी पूरा ध्यान शरीर के उघड़ने से बचाने में लगा रहता है या इतनी बड़ी होती है कि हाई हिल के सैंडल पहनने के बाद भी कामवाली बाई, जो काम करने के दौरान अपनी साड़ी कमर में खोंच लेती है, की तरह एक हाथ में उसे उठा कर चलना पड़ता है.
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Thursday, February 21, 2013

बदबू हम झेलें और चुम्मी ...

बदबू हम झेलें और चुम्मी ...
जानवर पालने की आदत से मुझे न जाने क्यों जरूरत से ज्यादा परेशानी होती है. खास विभिन्न नस्ल के कुत्ते. इन्हें पालने वाले जब-तब उसे अपनी गोदी में उठा लेते हैं उसे चुमते और उसके बालों को यूं सहलाते हैं जैसे गुलाब की पंखुड़ी हो और ऐसे इतरा कर बतियाते हैं जैसे घर के लोगों से बात करने में इन्हें परेशानी है. इतने प्यार से अपने बच्चे से ज्यादा पुचकारते हैं कि यूं लगता है मानों इनकी दुनिया यहीं तक सिमट कर रह गयी है. अपने साथ कार में बिठा कर ले जाना आम हो गया है. सुबह शाम इसी के बहाने चहल-कदमी कर लेते हैं, पर यह क्या मेरे घर के सामने रोज दोनों वक्त बिना नागा किये हगने-मुतने उसके गले में बंधे पट्टे की चेन को ढीली कर खड़े हो जाते हैं. वह कुत्ता मेरे घर के दरवाजे से कुछ कदम दूर न जाने क्या सूंघता है और शौच कर अपने मालिक की ओर देखता है मानो कह रहा हो चलो इनके घर में गंद फैला चुके आब अपने साफ-सुघरे घर की ओर कदम बढ़ायें. साला कुत्ता और उसका मालिक तेरी तो..........
शशि परगनिहा
21 फरवरी 2013 गुरूवार
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खाली हाथ आये हैं हम खाली हाथ जायेंगे

खाली हाथ आये हैं हम खाली हाथ जायेंगे
कालेज के बच्चे खुश हैं कि हमें लैपटॉप और टैबलेट मिलने वाला है. वे आस लगाये बैठे हैं, देर से सही मिल ही जाएगा. क्या सचमुच यह आधुनिक यंत्र इन्हें मिलेगा? शायद नहीं... बीई, बीए, बीकॉम, एमए, एमकॉम और एमएससी के बच्चे अप्रैल में अंतिम सेमेस्टर की परीक्षा देंगे. इसी दौरान चूंकि नवम्बर 2013 में छत्तीसगढ़ विधानसभा का चुनाव होना है, तो चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाएगी फिर लैपटॉप और टैबलेट वितरण को रोकना पड़ेगा.
अभी सांकेतिक रूप में 20 लैपटॉप बांटे गये हैं. अनुपुरक बजट में इस मद के लिए 50 करोड़ का प्रस्ताव रखा गया है. अभी निविदा आमंत्रित की गई है. इस प्रक्रिया को पूर्ण होने में कुछ महिने और लगेंगे और इसी बीच आचार संहिता लागू हो जाना है फिर कैसे हर शिक्षित युवक-युवतियों के हाथों में लैपटॉप और टैबलेट होगा?
शशि परगनिहा
21 फरवरी 2013, गुरूवार
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अंबूजा से ही घर बनायें

अंबूजा से ही घर बनायें
बलौदाबाजार (भाटापारा जिला) स्थित अंबूजा सीमेंट फैक्ट्री में हुए हादसे में पांच लोगों की मौत ने किसी को नहीं झझकोरा. एक दो दिल वह हादसा अखबारों की सुर्खियों में रहा और बात आयी गयी हो गयी. इसकी जांच का जिम्मा राज्य सरकार ने उस अधिकारी को सौंप दिया, जो अंबूजा के गेस्ट हाउस में निवासरत है. रिजल्ट क्या निकलेगा ये समझना जरूरी नहीं है क्योंकि नमक की अदायगी वह अधिकारी करेगा ही. इस बीच राजधानी से प्रकाशित अखबारों में जरूर अंबूजा का विज्ञापन अपने पूर्व इश्लोगन को दरकिनार कर प्रकाशित होने लगा है. अब इस विज्ञापन में ..घर बना रहे हैं? इसलिए अंबूजा सीमेंट से ही घर बनाइये... छप रहा है.
यह मामला विधानसभा सत्र में उठा तो श्रम मंत्री ने प्रबंधन की ओर से जवाब देना शुरू कर दिया. वे बता रहे हैं कि अंबूजा में उत्पादन बंद है, जबकि उत्पादन उस हादसे के बाद भी नहीं रूका है. इन दिनों महिलाओं पर अनाचार के मामले ने सुर्खियां बटोर रखी है, ऐसे में इस मुद्दे ने राज्य सरकार के मंत्रियों को राहत दे रखी है. कोई इसे गंभीरता से नहीं ले रहा है.
शशि परगनिहा
21 फरवरी 2013, गुरूवार
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प्रमाण-पत्र और घुमावदार रास्ता

प्रमाण-पत्र और घुमावदार रास्ता
नागरिक सुविधाओं के साथ राजधानी रायपुर के कलेक्टोरेट में बेहतर गुणवत्तायुक्त काम-काज एवं परफैर्मेंस के लिए आईएसओ प्रमाण-पत्र मिला है, जिसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है लेकिन वस्तुस्थिति क्या है इसे मैं और मेरी तरह इस दफ्तर का लंबे समय से आना-जाना कर निराश हो रहे हैं, वे बेहतर बता सकते हैं.
मेरे दादा-परदादा के समय की हमारे पास दो-नाली बंदूक है, जो समयानुसार मेरे दादा, फिर मेरे पिताजी और अब मेरे बड़े भाई के नाम पर है. मेरे भइया अब इसे अपने पुत्र के नाम ट्रॉसफर करना चाह रहे हैं. सारे डाक्यूमेंट के साथ आज से 10 माह पूर्व मैंने आवेदन किया हुआ है. जब भी मेरा कलेक्ट्रेट जाना होता है, कागजों की कमी बता कर या पुलिस वेरिफिकेशन के नाम पर महिनों एक ही टेबल में फाइल धुल खाती पड़ी रहती है. मेरा भतीजा कई बार अपने आफिस से छुट्टी लेकर इस दफ्तर से उस दफ्तर चक्कर काटता रहता है, पर होना-जाना कुछ नहीं है.
आपको बता दूं कि वह बंदूक किसी काम की नहीं है. बरसों उसका चिड़िया मारने तक में काम पर नहीं लागा गया है. एक संदूक में वह घर के कबाड़ खाने में कहीं गुम सा है पर नियम तो नियम है. हम जैसे सामान्य व्यक्ति नियमों से विपरित जा नहीं सकते इसलिए जद्दोजहद कर रहे हैं, जबकि शहर में ऐसे अनेक बंदूकें होगी, जो बिना लायसेंस की न जाने कितनों की जान ले चुकी होंगी. इस कार्य को करा लेने की मेरी जिद ने मुझे भी कहीं हतोत्साहित किया हैं. मैं यही सोचती हूं कि यार एक बच्चा भी 9 माह के बाद इस दुनिया में प्रवेश कर जाता है फिर ऐसी क्या बात है कि इस बंदूक के वारिश को उसका सार्टिफिकेट नहीं मिल रहा है.
शशि परगनिहा
21 फरवरी 2013, गुरूवार
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Wednesday, February 20, 2013

उनके आंसू हमारी पीड़ा

उनके आंसू हमारी पीड़ा
27 मई 2012 की शाम भाठागांव स्थित वाटर वर्ल्ड के पास खेत में बैठकर यातायात महिला आरक्षक अपने पुरूष मित्र प्रथम बटालियन के जवान के साथ बातचीत में लगी थी तभी कुछ युवकों ने महिला सिपाही को पास के खेत में ले जाकर अनाचार किया. पुलिस ने पीड़िता का मेडिकल कराने के बाद गैंगरेप का अपराध कायम किया. मामला कोर्ट में चला और 7 महिने पूर्व के इस केस का रिजल्ट यह निकला कि आरोपी बा-इजजित बरी हो गये. पुलिस ही आरोप साबित करने में असफल रही.
इस मामले का रिजल्ट इसलिए दिलो-दिमाग में हलचल मचा रहा है क्योंकि पुलिस ने स्वयं अपने साथी को न्याय दिलाने पुख्ता धारायें नहीं लगा पायी और ना ही केस को इतना मजबूत बना पायी कि इस तरह के अपराध करने वाले साक्ष्य के अभाव में आसानी से छूट गये.
इसी तरह का एक मामला बस्तर के झलियामारी में स्थित कन्या छात्रावास में नाबालिग बच्चियों के साथ हुआ. मामले ने तुल पकड़ा और इस पर राजनीति शुरू हो गई. चूंकि इन दिनों छत्तीसगढ़ विधानसभा का सत्र चल रहा है, तो यह मामला उछलना ही था. जैसे ही इस पर बहस चली उच्च शिक्षा मंत्री भरे सदन में रो पड़े. मुख्यमंत्री ने खुलासा किया कि इन हच्चियों से मुलाकात करने और इनकी पढ़ाई की व्यवस्था का पूरा इंतजाम करने का वायदा पहले ही इनके माता-पिता से कर रखी है.
सवाल यह कि क्या सचमुच इन हादसों से गंभीर रूप से आहत हुई बच्चियों और उस महिला आरक्षक की पीड़ा को कोई समझ रहा है? क्या हम सिर्फ चौक-चौराहे में कैंडल जलाते रहेंगे? क्या हम भिन्न-भिन्न तरीकों से अपना विरोध प्रदर्शन करते रहेंगे पर व्यवस्था वही की वही रहेगी?
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Tuesday, February 19, 2013

कुंभ में बिछुड़े भीड़ में मिले

कुंभ में बिछुड़े भीड़ में मिले
राम अब बड़ा हो गया है. पढ़ाई-लिखाई में कमजोर है. नौकरी नहीं मिल रही है. सड़कों में आवारा घुमता है. आवारा कुत्तों को प्यार करता है और लोगों को उल्लू बना चार पैसे कमा लेता है. उसके पास खुद की खोली है, जिसमें वह तब लौटता है, जब सभी घरों की लाइईटें बंद हो जाती है. जिस अवस्था में रहता है वैसे ही सीधे बिस्तर में पड़ जाता है और जब सुबह उसकी नींद टूटती है, तब तक पूरी बस्ती में सिफ4 छोटे बच्चे और बुजुर्ग अपनी-अपनी खोली के सामने गलीनुमा सड़क में खेलते या सिर पर हाथ रख टकटकी लगाये न जाने क्या देखते-सोचते रहते हैं
राम नित्य कर्म से फारिग हो फिर निकल पड़ता है, चार पैसों के जुगाड में. यही उसकी दिनचर्या है. ऐसे ही एक दिन बड़ी सी कार के सामने वह टकरा जाता है. कार का ड्राइवर उसे उठाता है, तो राम को देख दंग रह जाता है. वह सोचने लगता है कार में बैठे साहब और इस फटे-हाल युवक की शक्ल में कितनी समानता है. अब ड्राइवर मौन है और राम पैसे एठने की जुगत में लग जाता है. उसे खरोच तक नहीं आयी है, पर उसे पता है कार के अंदर सूट-बूट पहना टाईधारी युवक पुलिस केस में फसना नहीं चाहता और अपने पर्स से जितने नोट निकालते बनेगा उसे पकड़ा देगा.
ड्राइवर अब भी खामोश है. राम ने मौका देख कार का पिछला दरवाजा खोला. अंदर बैठा युवक मोबाइल में व्यस्त है. उसे नहीं पता बाहर क्या हो रहा है.
राम की नजर जैसे ही पिछली सीट पर बैठे युवक की ओर जाती है, वह भी सन्न रह जाता है. अरे साला इसमें और मुझमें बड़ी समानता है. यह साला गोरा-चिट्टा है. बेशकीमती कपड़ों और आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस है. विदेशी परफ्यूम की मीठी-मीठी गंध आ रही है और मैं एक ही कपड़े को हफ्ते-हफ्ते पहन रहा हूं. कपड़े में पसीने की तेज बदबू हैं. पैर में फटी चप्पल है. हाथ सख्त है. पर हूं तो हू-ब-हू इसी की तरह.
कार में बैठा युवक भी चौक जाता है. बिना कुछ कहे अपने पर्स से 1000 के 5 नोट निकालता है और अपने विजिटिंग कार्ड के साथ उसे थमा ड्राइवर को इशारा कर आगे बढ़ जाता है.
राम विजिटिंग कार्ड की अनदेखी कर 5000 के नोटों को ललचायी नजरों से देखता है. खुस है. महिने भर का खर्च निकल जाएगा. फिर सोचता है उस युवक की तरह न सही एक अच्छी शर्ट और पैंट तो खरीद सकता है. वह तुरंत पास के मॉल में जाता है और किसी बडेÞ बाप के बेटे की तरह जेब में रखे रूपयों की गर्मी से 3000 रूपयों में एक पैंट और शर्ट खरीद लेता है. बड़े होटल में छक कर खाना खाता है और बचे रूपयों से लेदर का शू खरीद अपनी खोली में पहुंचता है. वह खुश है लेकिन आज उसे नींद नहीं आ रही है. करवट बदलते रात कट जाती है. सुबह-सुबह उसे ख्याल आता है जेब में रखे विजिटिंग कार्ड की. मैली शर्ट की जेब को टटोलने पर कार्ड दिख जाता है. कार्ड में उस युवक का नाम एस. कुमार लिखा है. वह तय करता है आज बन-ठन कर एस. कुमार से मिला जाए.
गुनगुनाते हुए वह नहाता है. नये कपड़े पहन जब खुद को टूटे आइने में निहारता है, तो एस. कुमार का प्रतिबिंब झलकता है. लिखे पते पर वह पहुंचता है, पर यह क्या अनेक बाधाओं को पार करने के बाद लगभग एक घंटे की मशक्कत ने एस. कुमार के केबिन के पास ठहरने बाध्य कर देता है. सुबह से दोपहर हो जाती है. तीन बजे के लगभग एस. कुमार अपने केबिन से बाहर निकलता है, पास के फाइव स्टार होटल में लंच लेने.
तभी दोनों की नजरें टकराती है. एस. कुमार इशारे से राम को साथ चलने कहता है. राम एस. कुमार के पीछे-पीछे आफिस से बाहर आता है. वही ड्राइवर उन्हें होटल तक छोड़ता है.
एस. कुमार और राम साथ लंच कर रहे हैं. राम खाना देख टूट पड़ता है. एस. कुमार सुप के बाद एक चपाती खा बिल देने की तैयारी में है. दोनों के बीच कोई संवाद नहीं है. भरपेट खाने के बाद एस. कुमार राम को वही छोड़ आगे अपने आफिस जाने से पहले अपने घर का पता देता है और कहता है रात में घर पर साथ डिनर करेंगे, जरूर पहुंच जाना.
राम को और क्या चाहिए. वह पास के गार्डन में समय काटता है. जैसे ही 7 बजा वह एस. कुमार के बताये पते पर पहुंचने बस स्टॉप की ओर चल पड़ता है. एक घंटे में वह एक सुसज्जित बंगले के बाहर खड़ा है.
गेट खोलने वह जैसे ही हाथ बढ़ाता है गाड उसे रोक देता है. नाम... मिलने का कारण पूछता है. गाड कहतता है अभी साहब घर नहीं पहुंचे हैं. 1 घंटे बाद आना. राम परेशान हो जाता है. कहता है अंदर बैठने दो बाहर एक घंटे कैसे काटूंगा. गाड और राम में तीथी बहस होने लगती है, तभी बंगले की बालकनी से एस. कुमार की मां की नजर इस शोर की ओर जाता है और वह इंटरकाम से वस्तुस्थिति का पता लगाती है. फिर आदेश देती है, उस युवक को अंदर आने दें.
राम को अंदर जाने दिया जाता है. राम का मुंह बंगले की साज-सज्जा देख  खुला का खुला रह जाता है, तभी एस. कुमार की मां बैठक कक्ष में पहुंचती है. राम में एस. कुमार की झलक दिखती है. उसे यह तो पता था कि आज कोई मेहमान हमारे साथ डिनर में आमंत्रित है, पर यह नहीं मालूम था कि यह अंजान युवक अपना जाना-पहचाना सा होगा.
वह सदमे में है. पास के सोफे में वह धम से बैठ जाती है. पुरानी यादें तरोताजा हो जाती है. याद आता है आज से 20 साल   पहले का द्श्य, जब वह अपने दोनों बच्चों, सास-श्वसुर और पति के साथकुंभ मेले में गई थी. पति ने अपने माता-पिता की इच्छा को पुरा करने कुंभ स्नान का वायदा कर यहां लाया था और इसी कुंभ मेले में पुण्य स्नान करने के दौरान ऐसी भगदड़ मची कि कब एक हाथ से पति का हाथ छुटा और दूसरे हाथ में थामें श्याम साथ रह गया.
अपनों की तलाशने अंजान जगह वह रोती-बिलखती रही. पुलिस ने बाद में मृतकों की सूची में पति, सास-श्वसुर का नाम दिखाया. राम के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली और वह दुखी मन से श्याम को अपने सीने से लगा घर लौट गई.
अब उलका एक ही काम था. श्याम को इस काबिल बना देना कि कुल का नाम रोशन कर सके. मेहनत रंग लायी और श्याम ने मां की इच्छाओं को पूरा कर दिखाया. इस युवक में मां को अपने बिछड़े बेटे राम की झलक नजर आयी. वह कुछ कह पाती इससे पहले ही एस. कुमार की ड्राइंग रूम में एट्री हुई और वह खामोश मां की भावनाओं को समझ गया.
एस. कुमार ने राम से सिर्फ यही कहा. भाई मैं तुम्हारा छोटा भाई श्याम और यह हमारी मां, जो बरसों से तुम्हें तलाशती रही.
शशि परगनिहा
19 फरवरी 2013, मंगलवार
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Monday, February 18, 2013

भोजन की बर्बादी

भोजन की बर्बादी
एक तरफ हम भोजन की बर्बादी कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ हमारे नेता बीपीएल वर्ग को रिझाने 2 रूपये किलो में चावल दे रही है. ये दो विरोधाभाषी स्थिति है. याने हम महंगाई की मार से कमर टूटने की बात कर मोर्चा खोल देते हैं, पर हमारे ही घरों में प्रतिदिन इतना भोजन बच जाता है कि उसे हम किसी भूखे इंसान को दे दें, तो उसका पेट भर सकता है लेकिन ऐसा करना हमारी फितरत में नहीं है. हम उसे कचरे के डिब्बे में डाल खाने योग्य छोड़ नहीं रहे हैं.
मेहमान भगवान
भारतीय घरों में यह माना जाता है कि सदस्यों की संख्या को ध्यान में न रख मेहमानों के आने पर उन्हें भोजन खिलाये बिना न जाने देना की परम्परा का निर्वाह करना है इसलिए भोजन कुछ अधिक बनाया जाये. वैसे ही प्रत्येक सदस्य की रूचि का ख्याल कर गृहणी अनेक वैरायटी के खाद्य बनाती है ताकि डाइनिंग टेबल से कोई सदस्य भूखा न उठे. इससे हो यह रहा है कि थोड़ा-थोड़ा ही सही लगभग सभी घरों में आधा किलो से अधिक खाना बच रहा है.
जरूरत नहीं फिर भी थाली में व्यंजन
विभिन्न पार्टियों और किसी समारोह (खास शादी-भोज) में इतने तरह के व्यंजन परोसे जा रहे हैं कि वहां उपस्थित मेहमान अपनी रूचि और पेट की जरूरत को नकारते हुए एक बार में ही पूरी प्लेट को भर लेता है और अरूचिकर खाद्य को डस्टबीन के हवाले कर देता है. हम भारतियों ने बफे को अपना तो लिया है किंतु उसके तौर-तरीके को अपना नहीं पा रहे हैं. ऐसा पार्टियों में मैंने देखा है कि कोल्ट ड्रिंक एक गिलास पीने के बाद भी लोग उस स्टाल में ऐसे झुमे रहते हैं, जैसे पानी पीना इनकी आदत में शुमार नहीं है. वैसे ही आइस्क्रीम के स्टाल में होता है. तरह-तरह की मिठाइयों के लिए भीड उमड़ पड़ती है और इतनी मश्क्कतों के बाद जब इन्हें देखा जाए, तो इनके कोल्डड्रिंक के गिलास पास ही लुड़के पड़े होते हैं. आइस्क्रीम प्लेट में पिघल कर गिरता रहता है और मिठाइयां सीधे डस्टबीन के ऊपर अलग-अलग रंगों में आंख-मिचौली खेलते दिखते हैं.
भूख से अघिक का आर्डर
होटलों में भी हम अपनी जरूरत से ज्यादा भोजन का आर्डर कर देते हैं और जब इन्हें खाने की बारी आती है, तो टेबल में उपस्थित सदस्य एक दूसरे से आंखे चुरा अब बस कह अपनी प्लेट सरका देते हैं. ये भोजन भी कुड़े में जायेगा. वैसे मैंने कुछ होटल मालिकों को इन बचे जुठे भोजन को भिखारियों को रात 1 बजे के बाद बांटते देखा है, पर उस वक्त जिन्हें भूख होती है वे किसी गली के नुक्कड़ में सिकुड़े करवट बदलते रात काटते दिख जायेंगे.
मुफ्त खाद्यान
छत्तीसगढ़ सरकार चुनावी हथियार के रूप में बीपीएल वर्ग को रिझाने चावल, गेहूं और चना वितरण की तैयारी में है. ये योजना तो सही है, पर इसका दूष्परिणाम यह निकल रहा है कि इस वर्ग के लोग अलाल हो गये हैं. वे काम करने से जी चुरा रहे हैं. वे इस मुफ्त के राशन को उसी राशन दुकानदार को बेच कर जगह-जगह खुल गई शराब दुकान के हवाले कर मदमस्त झुम रहे हैं और उनकी बीवी-बच्चे दो जून की रोटी के लिए भीड़ में हाथ फैला भीख मांग रहे हैं.
महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी
भोजन बर्बाद करने में सिर्फ भारतीय ही नहीं हांगकांग, सिंगापुर, ताइवान, दक्षिण कोरिया के वासी भी ऐसा करते हैं. इन देशों में भोजन की बर्बादी रोकने रिसाइकलिंग और टैक्स लगाने की प्रक्रिया चल रही है, पर हमारे देश में ऐसा नहीं होगा क्योंकि देश की जनता को कोढ़ी बनाकर राजनीति करने की जो वर्षों पुरानी नीति है उसे कोई भी नेता तोड़ना नहीं चाहेगा. इससे एक तरफ महंगाई बढ़ेगी तो दूसरी तरफ बेरोजगारी और गरीबी.
शशि परगनिहा
18 फरवरी 2013, सोमवार