Monday, February 25, 2013

क्षमा बडन को चाहिए छोटन को....

क्षमा बडन को चाहिए छोटन को....
एक ब्राह्मण, एक योध्दा, एक व्यापारी, एक कलाकार-इन चारों का मूल मानवीय चरित्र एक सा होता है. ये सभी जन्म और मृत्यु के समय असहाय होते हैं. इन सभी में प्रेम और क्रोध जैसे भावावेग रहते हैं, पर ब्राह्मण के व्यक्तित्व को नियंत्रित करती है-शास्त्र नीति, योध्दा के  व्यक्तित्व को रणनीति, व्यापारी के  व्यक्तित्व को व्यापार नीति और कलाकार के  व्यक्तित्व को कला प्रवणता. वैसे ही राजपुरूष के  व्यक्तित्व की मुख्य दिशा है राजनीति. किसमें उसका स्वार्थ है और किसमें उसके स्वार्थ का विरोध है इसका निरूपण राजनीति के मापदंड ही करते हैं.
कुछ ऐसी ही नीति को अपना अस्त्र बना छत्तीसगढ़ प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ने एक जाति विशेष के खिलाफ तीर कमान से निकाल दी है, पर दूसरी ओर भी भेदी तीर को रोकने की क्षमता है. ये ऐसी चोट है, जो शरीर को भेद नहीं पायी, पर मन-मस्तिष्क को लहु-लुहान कर गयी. क्रिया पर प्रतिक्रिया का दौर चल रहा है. मामला थाने में पहुंच गया है.
छत्तीसगढ़ में कुर्मी समाज के लोगों की संख्या नगण्य नहीं है कि आप भरी सभा में अंबुजा सीमेंट संयंत्र के खिलाफ आयोजित धरना-प्रदर्शन में विवादास्पद टिप्पणी कर खामोश हो जाए और हमारे शरीर में संचालित रक्त पानी हो जाए. हमारी खामोशी और उव्देलित नहीं होने को हमारी कमजोरी न समझे. हम तब प्रहार करते हैं, जब आप मदमस्त हो आपा खो बैठते हैं. हम तो इस इंतजार में थे कि विधानसभा में कितने दम-खम के साथ मामला उठाया जाता है और न्याय दिलाने की कोशिश होती है. वहां तो हवा गुल हो गयी. मामला जरूर उठा लेकिन किसी ने वाक आउट नहीं किया. मतलब तो यही निकलता है कि जिसे हमने अपना प्रतिनिधि चुना वह बौना है.
अंबुजा में हुए हादसे पर मैंने पहले ही अपने विचार रख दिये हैं. मैंने इस पर तीखी टिप्पणी की थी, पर क्या हुआ? क्या विधानसभा में किसी नेता ने अपनों की शहादत पर सत्ता पक्ष के नेताओं को झकझोरा, नहीं ना. फिर इस मुद्दे को अंबुजा संयंत्र में धरना प्रदर्शन व सभा लेकर क्या जाहिर करना चाहते हैं? क्या ऐसा कर हम उन मृतकों को श्रध्दांजलि दे रहे हैं? या उस लहू के छिंटों से खुद की बगीया सींच रहे हैं?
हम छत्तीसगढ़िया, हम कुर्मी. हमें नाज है कि हम अपनी पहचान कायम रखे हैं. हमें खुद पर फक्र है कि हम अपने मेहमान को सिर-आखों में बिठा कर रखते हैं. हममें सहनशीलता है, धैर्य है. हम उजबक नहीं हैं कि जब-तब किसी का हाथ-पैर तोड़ें, हाथा-पायी करें, लोगों पर डंडे बरसायें.
मुझसे एक बार किसी ने कहा था- छत्तीसगढ़िया प्रगति नहीं कर सकते. वे हम जैसे बाहरी लोगों को अपने उपर बिठाते और उनकी जी-हुजूरी करते हैं. इन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ना नहीं आता. शायद उन्हें नहीं मालूम था कि जिससे वे यह बात कह रहे हैं, वह इसी माटी में जन्मी है. आज वही बंदा अपनी उस कुर्सी और केबिन में बंद है. वह किसी से बात करने में घबराता है कि न जाने ये छत्तीसगढ़िया क्या बात सहजता से कह दे कि दो-चार रातों की नींद हराम हो जाए.
पूर्व मुख्यमंत्री सयाने हैं. वे हमें भड़काना चाहते हैं और इसी बहाने सुर्खिया बटोरने में लगे हैं. हमें अपने मूल व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाना है. हां पर हमारी नीति यह है कि तब प्रहार करें, जब लोहा गर्म हो. वे हमें भड़काने की बजाए अपनी राजनीतिक चाल से पीड़ित और दुखी परिवार को राहत दिलायें. सुर्खियां बटोरना हमें भी आता है, लेकिन हमारी फितरत मेहनत कर प्रगति करने की है. हम सीढ़ी-दरसीढ़ी चलते हैं. उछल कर शिखर को नहीं छूते. एक काम में जरूर हमें लग जाना है, जिस सार्वजनिक स्थल से उन्होंने विवादास्पद टिप्पणी की है वैसे ही मंच से हमारी जाति विशेष से क्षमा के लिए हाथ जोड़ दें.
क्योंकि- क्षमा बड़न को चाहिए,
छोटन को...............
शशि परगनिहा
25 फरवरी 2013, सोमवार
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