Thursday, February 28, 2013

बोलती बंद

बोलती बंद
-अरे शशि तू यहां बैठी है?
-आॅफिस में और कहां बैठूंगी, यही मेरी सीट है.
-एक समाचार छपाना है. मेरे बैंक का है.
-मेरा इसमें कोई रोल नहीं है. ये समाचार वाणिज्य पेज में जाएगा. इसे जो देखते हैं, उन्हीं की सीट में तुम बैठे हो.
-तुम मैनेज कर लेना.
-नहीं में इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती. सभी के विभाग बटे हुए हैं. हां मैं तुम्हारी तरफ से निवेदन कर दूंगी कि छाप दो.
-फिर छप ही जाएगा.
-और क्या हाल है?
बातों का सिलसिला चल निकला. अब तक मैं उसे पहचान नहीं पायी थी, पर जब पुरानी बांते खुलने लगी तो याद आ गया कि हमने साथ में पत्रकारिता की है. अब वह 2 बच्चों का पिता है और बैंक में मैनेजर की प्रमोशन पर बस्तर में कार्यरत है.
इस दोस्त का जिक्र इसलिए कि जब हम साथ पढ़ाई कर रहे थे, तो नोट्य का आदान-प्रदान किया करते थे. रात में हमारी क्लास लगती थी और कई ऐसे सहपाठी भी थे, जो अपने नाम के साथ एक और डिग्री जोड़ कर अपने नाम की लाइन को लंबी करना चाहते थे. कुछ हम उम्र थे, तो अनेक शादी-शुदा और नौकरीपेशा भी. रात में कालेज चलने से लड़की होने की वजह से सप्ताह में एक-दो दिन कालेज जाते नहीं थे, पर यह बंदा हर दिन क्लास अटेण्ड करता था इसलिए नोट्स की जरूरत पड़ जाती थी और बातचीत भी होती थी.
एक दिन न जाने वह मेरे घर नोट्स लेकर पहुंच गया. मैंने सहजता से उसे बैठने कहा. वह बैठा भी और नोट्स देकर 5 मिनट में लौट गया लेकिन इसके बाद मेरे भाई ने जो हंगामा किया उसकी मुझे कल्पना नहीं थी. मेरे हाथ से नोट्स छिन कर भाई ने उसके एक-एक पन्ने को खंगाल लिया. उसे कहीं कोी लव लेटर या आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं मिली, पर अपने कृत्य को सहीं साबित करने घर सिर पर उठा लिया. मां पहले आयी फिर पिताजी. माजरा क्या है जानने की कोशिश हुई. तर्क-वितर्क होते रहे लेकिन मैंने अपने भाई के एक प्रश्न कि-वह आखिर कौन है और यहां तक कैसे आया? तेरा उसके साथ रिश्ता क्या है?
मैंने सहजता से सिर्फ इतना कहा-तुम खून के रिश्ते से मेरे भाई हो और वह सहपाठी है, तुम्हारी तरह वह भी मेरे भाई की तरह है.
घंटे भर चले उत्तेजित माहौल में अचानक शांति छा गई. मां चौके में चली गई. पिताजी अपने कमरे में और भाई निरूत्तर हो सिर के बाल खुजाने लगा.
शशि परगनिहा
28 फरवरी 2013, गुरूवार
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