Wednesday, November 9, 2011

भक्तों की पूर्णाहूति

भक्तों की पूर्णाहूति 4 मार्च 2010 के दिन प्रतापगढ़ जिले में कृपालु महाराज ने अपनी पत्नी की स्मृति में भंड़ारे का आयोजन किया था, तब उन्होंने अपने भक्तों को बर्तन और सूती धोती देना शुरू किया. इस प्रसाद को पाने भक्तों ने ऐसा उत्साह दिखाया कि वहां बने गेट को तोड़ डाला और 63 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. 100 से अधिक घायल हो गये. इसकी जांच केआदेश तो हुए पर अब तक इस पर क्या कार्यवाही हुई किसी को कुछ भी पता नहीं है. 16 अक्टूबर 2010 में बिहार के एक मंदिर परिसर में भगदड़ मची और 10 भक्तों की वहीं समाधि बन गई. कोलकाता में भी सन् 2010 में एक बड़ा हादसा गंगा स्नान के समय हो चुका है. अब सन् 2011 में एक बार फिर हरिद्वार में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जन्म शताब्दी महोत्सव पर कल मंगलवार 8 नवम्बर 2011 को यज्ञ कुण्ड तक पहुंचने भक्तों ने ऐसा उतावलापन दिखाया कि 20 भक्तों, जिनमें बुजुर्ग और महिलाएं थी, की पूर्णाहूति हो गई. सरकारी आकड़ों के अनुसार आहतों की संख्या 50 बतायी जा रही है. कई परिवार के सदस्य गुम हो गए हैं, जिन्हें खोजने में भक्तों की हालत खराब हो रही है. यह हादसा मुझे इसलिए भी झकझोर रहा है, क्योंकि इसमें मरने वालों में कुछ मेरे प्रदेश छत्तीसगढ़वासी भी हैं. इस तरह के धार्मिक आयोजनों की आखिर जरूरत क्यों पड़ती है? क्या यह हमारी धार्मिक भावनाओं के साथ खेलना नहीं है? जब आप यह मान कर चलते हैं कि हमारे अनेक अनुयायी हैं और वे इसमें भाग लेने आयेंगे, तो उनके लिए समस्त व्यवस्था क्यों नहीं की गई? क्यों उस प्रदेश की सरकार से व्यापक सुरक्षा और व्यवस्था बनाये रखने सहयोग नहीं मांगा गया? क्यों स्वयंसेवकों को पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, जिन्हें विभिन्न जिम्मेदारी सौंपी गई होती है? क्यों आवागमन के लिए सकरी गली बनायी जाती है? क्यों बांस के बैरिकेट बनाये जाते हैं? क्यों यह जानने समझने की कोशिश नहीं की गई कि 1551 यज्ञ बेदियों से निकलने वाले धुएं से अस्थमा के मरीजों, बच्चों, बुजुर्गो की तकलीफ बढ़ सकती है और वे अस्वस्थ हो सकते हैं? जब इस महा यज्ञ की पिछले एक साल से योजना बना कर काम किया जा रहा था तो इसके अच्छे और बुरे दोनों पहलुओं को क्यों नजरअंदाज कर दिया गया? क्यों यातायात संचालन के लिए स्वयंसेवकों ने गंगा पर श्रमदान कर एक किलो मीटर का पुल निर्माण किया, जिसमें शासन से मदद नहीं ली गई? क्यों इस पुल को बनाते समय किसी इंजीनियर से सलाह नहीं ली गई कि भारी भीड़ में अनेक लोगों का भार वह वहन कर पायेगी या नहीं? ऐसे अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं, जो गायत्री परिवार के प्रमुख डा. प्रणव पंडया की लापरवाही को उजागर कर रहे हैं. अब यदि वे इस दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार भी लें और मृतक परिवार को 2-2 लाख की राशि देने की घोषणा कर दें, तब भी हुई क्षति की भरपाई नहीं हो सकती. गायत्री परिवार ने इस शताब्दी समारोह को मनाने जहां-जहां इनके अनुयायी और मंदिरों का निर्माण हुआ है वहां भी इस तरह के आयोजन कर रही है फिर अलग से हरिद्वार में इस आयोजन की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? क्या इसलिए कि धार्मिक ज्ञान का इस्तेमाल अपने व्यवसाय को चमकाने में किया जाए? गायत्री परिवार ने अपने कुछ सिध्दांत बना रखे हैं, जो बहुत ही अच्छे और ज्ञानवर्धक हैं लेकिन अब तक जो पुण्य और यश गायत्री परिवार ने कमाया था वह इस हादसे ने धो दिया. व्यवस्था का अभाव इन हादसों का सबसे बड़ा कारण है. जब तक भीड़ तंत्र को समझा नहीं जाएगा तब तक उस प्रदेश की सरकार को ऐसे आयोजन करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि पिछले 10 सालों में सरकारी आकड़ों के अनुसार 1000 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है.

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