Wednesday, March 20, 2013

मां कुछ तो बोल...

मां कुछ तो बोल...
मां आज तुम बहुत याद आ रही हो. सुबह अपने कपड़े की सिलाई खुल जाने पर उसे सिलने सूई-धागा तलाश रही थी, तो तुम मेरी नजरों के सामने आ गई. ऐसा लगा जैसे तुम मेरे उस कपड़े को दुरूस्त करने हाथ आगे बढ़ा रही हो लेकिन अचानक आंखों से ओझल हो गई. न जाने कहा रखे सूई-धागे को ढूंढने में समय बर्बाद करती रही. मां तुम जब हमारे कपड़ों को धोने डालती थी, तो एक नजर पूरे कपड़े को टटोल लेती थी और बटन, हुक, सिलाई खुल गये हों तो ठीक-ठाक कर कबड में रख देती थी, जैसे वह अभी टेलर के पास से सिलाई होकर आया है.
मां मेरे पास तुम्हारे हाथों से कढ़ाई किये रुमाल आज भी सुरक्षित हैं. मैं उसी झोले में तह कर रख दी हूं, जो तुमने सिले हैं. मैं उसे अपने से अलग नहीं कर सकती और खराब भी नहीं कर सकती. मां वो तुम्हारी दी हुई अमानत है, जो मुझे सबसे प्रिय है. मैं उसे जब-तब खोल कर देख लेती हूं. उसमें मां तेरी छबि दिखती है. मां मुझे वह दिखता है, जब तुम पुरी दोपहरी बिना आराम किये इसे बनाने में लगा देती थी. तुम इतनी मेहनत इसलिए करती थी ताकि गर्मी, बरसात, ठंड में हम इस रुमाल से अपने चेहरे और हाथों को पोंछ कर साफ करते रहें.
मां क्या बाबूजी ने खुश होकर तुम्हें सिलाई मशीन भेंट की थी? मैंने जबसे होश संभाला रसोई का काम निपटा कर तुम इसी में जुटी रहती थी. हमने तुम्हारे सीले शमीज, फ्रांक और न जाने क्या-क्या डिजाइन के कपड़े पहन अपनी सहेलियों के बीच इतराया है. मां मुझे अब भी याद है, जब मैंने तुम्हारे द्वारा तैयार फ्रांक को पहनने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि उसमें तुमने मेरी पसंद का लेस नहीं लगाया था. कई दिनों की नाराजगी के बाद एक दिन वह जैसा मैं चाहती थी ठीक वैसा मेरी कपड़ों की अलमारी में सबसे ऊपर रखा था. मैं खुश हो पूरे दिन उसे पहन मटकती रही. रात में सोने से पहले उस फ्रांक को उतारना नहीं चाहती थी इसलिए चुपचाप अपने बिस्तर में जा सो गयी.
मां जब तक तुम हमारे साथ रही मैंने तुम्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया. तुम बड़ी खामोशी से हमारी जरूरतें पूरी करती रहीं और मां तुम उसी खामोशी से पूरे 2 दिनों तक हमारे साथ रही (वे दो दिनों तक कोमा में अस्पताल के बिस्तर में रही) और मुझसे कुछ कहे स्वर्गलोक चली गई. मां तुमने क्यों आखरी बार मुझसे बात नहीं की? मां कुछ तो जवाब दे मां...
शशि परगनिहा
20 मार्च 2013, बुधवार
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