Wednesday, March 6, 2013

तृप्ति

तृप्ति
गांव का चरवाहा और गोबर बीनने वाली बच्ची या नवयुवती, इनका साथ कभी नहीं टूटता. चरवाहा गाय, बैल, भैंस और बछिया लेकर निकलता है, जो दिन ढलने के बाद अपने ठहिया में लौटता है. चरवाहा किसी पेड़ की छांव में दोपहर गुजारता है. अब उसके पास मोबाइल आ गया है, जिसमें फिल्मी गाना सुनता बैठा रहता है. पहले यही चरवाहे मुरली की तान दे इन पालतु जानवरों को एक क्षेत्र से आगे जाने से रोक कर रखते थे और उस चरवाहे की एक हॉक से ये पशु इकट्ठा हो जाते थे, पर अब समय के साथ इनकी चाल बदल गई है. वह गाना सुनता पेड़ की छांव में अपने गमछे को बिछा सो जाता है या अन्य चरवाहों के साथ जुआ खेलता है और पैसे का जुगाड़ हो गया तो वहीं जाम से जाम टकरा लेता है. इधर जानवर चारा की तलाश में इधर-उधर मुंह मारते रहते हैं.
गांव की कुछ लड़कियां, जिन्हें पढ़ाई करना तकलीफदेह लगता है, वह घर के काम में हाथ बटाने की बात कह सिर में एक टोकरी रख गोबर बीनने इस जानवरों और चरवाहे के पीछे-पीछे निकल जाती है. मॉ-बाप भी खुश की आधा-एक एकड़ की जो जमीन है, उसमें खेती करने के लिए यह खाद बनेगा, घर की लिपाई करने के काम आयेगा और कण्डे भी तो बनेंगे, जो चूल्हा जलाने के काम आयेगा.
ये बच्चियां आधा पेट बासी (रात के बचे चावल को भीगा कर रखा खाना) नून (नमक) और लोटा भर पानी पीकर अपने शरीर को धूप या पानी से बचाने का जतन किये बिना उस टोकरी को ले निकल जाती हैं. मौसम अनुसार इमली की पत्ती उसका बीज या इसी तरह की चीजें वे खाती और पास में तालाब हो तो उसका या फिर किसी गड्ढे में पानी है तो उसी को पी लेती हैं. कितना गोबर इनकी एक छोटी सी टोकरी में इक्टठा होता है पता नहीं पर पूरी दोपहर वे इसी में लगी रहती हैं और यहीं उस चरवाहे और खाली-पीली घूम रही लड़की के बीच संवाद का सिलसिला शुरू होता है.
संवाद के बीच अश्लील वार्तालाप कर चरवाहा या उन युवकों की टोली जो स्कूल से मध्याह्न भोजन करने के बाद स्कूल छोड़ भाग जाते हैं. एक जगह अपना बस्ता पटक उस गोबर बीनने वाली लड़की से छेड़-छाड़ करने लगते हैं.
बच्ची उनके साथ घुल-मिल गई तो अच्छा है वरना दोपहर में जब सभी अपने-अपने घरों में सोये होते हैं यहां हवस का खेल बेरोक-टोक हो जाता है. बच्ची नासमझ है. वह घबराती है, पर बाद में वह इसकी आदी हो जाती है. यदि किसी बच्ची ने इसकी जानकारी अपने घर में दे दी तो पहले थाने में रिपोर्ट लिखाने की धमकी-चमकी होती है. समाज की बैठकी होती है. चौपाल में यह मुद्दा गरमाता है. पुलिस मजे लेती है. वह रिपोर्ट नहीं लिखती. अगली पार्टी से यदि वह पैसे वाला हुआ तो रूपये ऐंठती है. वही आपसी रजामंदी का खेल शुरू हो जाता है.
अंत सभी को पता है. रूपयों का लेन-देन और शराब-कबाब के साथ सारा मामला निपटा लिया जाता है. गोश्त के साथ चंद रूपयों का खाना-खर्च पूरे मामले को रफा-दफा कर देता है. उस बच्ची को कुछ समझ आता है या नहीं पर इस तरह के भोज में लड़की पक्ष के लोगों की भागीदारी देखते बनती है. वह बच्ची भी लंबे अंतराल के बाद भरपेट भोजन खाकर तृप्त नजर आती है.
शशि परगनिहा
6 मार्च 2013, बुधवार
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